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सवा करोड़ रोजगार का सच – प्रियंका गांधी

बनारस में लगभग 2000 करोड़ रुपये का सिल्क का कारोबार है। कोरोना संकट के पहले से ही कराह रहे सिल्क उद्योग में एक लाख अकुशल मजदूरों की छंटनी हो चुकी है। वेतन में 10% से लेकर 50% तक की कटौती की गयी है। सिल्क कारोबारियों का कहना है कि उनके पास मजदूरों की कमी नहीं पर आर्डर ही नहीं।
भदोही के कालीन उद्योग में निर्यात आर्डर शून्य पर हैं। यहाँ से लगभग 1200 करोड़ रुपये का कालीन निर्यात होता था और 99 फीसदी माल विदेश जाता है। यहां कुशल बुनकर के अलावा दो लाख अकुशल मजदूर काम करते थे मगर अब बताया जा रहा है कि मात्र 25 से 30 हजार ही काम कर रहे हैं।
देश की सबसे बड़ी आगरा की दो बड़ी जूता मंडी बिजलीघर व हींग मंडी में सन्नाटा है। अकेले आगरा में तीन लाख जूते के दस्तकार घरों में बैठे हैं। कोई काम नहीं है।
सावन में चूड़ियों की बिक्री उफान पर होती है पर फिरोजाबाद में चूड़ी कारीगरों के पास काम नहीं। बाहर से आर्डर बहुत कम हैं। ढाई लाख कारीगर बेकार हो गए हैं।
देश भर में चमड़े का हब कहे जाने वाले कानपुर में सरकार ने पहले 26 मई को सारी टेनरियाँ खुलवाईं मगर फिर पाँच दिनों बाद ही आधी से ज्यादा टैनरियां सरकार ने बंद करा दीं। यहां ढाई से तीन लाख मजदूर बेकार हो गए।
कानपुर के होजरी उद्योग में 50 फीसदी श्रमिकों के बूते काम हो रहा है। इनके पास ऑर्डर हैं मगर मैनपॉवर नहीं है।
स्पोर्ट्स गुड्स के लिए मशहूर मेरठ में 60000 श्रमिकों के पास कोई काम नहीं। तीन महीने से स्टेडियम बंद, खेल गतिविधियां बंद हैं नतीजन स्पोर्ट्स गुड्स के कारखाने भी बंद हैं।
लखनऊ में चिकन के कपड़े के कारीगर पहले नोटबंदी में रिक्शाचालक बने और अब तालाबंदी में सब्जी बेंचने लगे हैं। ईद, गर्मी जैसे सीजन में चिकन के कपड़ों की बिक्री न के बराबर रह गयी।
मुद्रा योजना के तहत लोगों को रोजगार देने का चालाकी से ढिंढोरा पीटा जा रहा है मगर ज़मीनी सच्चाई कुछ और है।
‘एक जिला एक उत्पाद’ के तहत हस्तशिल्प को बढ़ावा देने और रोजगार देने की बात कही जा रही है। मगर इस योजना का कुल बजट ही 100 करोड़ रुपये का है जिसका बड़ा हिस्सा प्रचार पर ही खर्च हो जाता है।
मनरेगा के तहत महज 100 दिन रोजगार देने की व्यवस्था है उसमें भी मजदूरी बहुत देर से मिल रही है। ऐसी स्थिति में, कोरोना काल कैसे मजदूरों के घर नियमित चूल्हा जलेगा?
खबरों के मुताबिक जगह जगह मनरेगा में अपात्रों के फर्जी जॉब  कार्ड बनाने का काम ज़ोरों पर है। केवल प्रचार, फोटोसेशन व आंकड़े दिखाने के लिए मनरेगा के नाम लेकर झूठे दावे किए जा रहे हैं।
किसी से छुपा नहीं है कि मंदी के इस दौर में भवन निर्माण की गतिविधियां कितनी हो रही है और कितने मजदूरों को काम मिल रहा है।
हमारी लगातार मांग रही है कि दस्तकारों, हस्तशिल्पियों और छोटे मझोले उद्योगों में काम करने वाले लोगों को सरकार हर महीने 10000 ₹ की राहत दे ताकि उनका जीवन यापन हो सके।
अपने श्रमिकों को मंदी के चलते वेतन दे पाने में अक्षम छोटे उद्यमियों को आर्थिक सहायता वेतन की भरपाई के लिए दी जाए।
मनरेगा में काम की अवधि 100 दिन से बढ़ाकर 200 दिन किया जाए। मनरेगा श्रमिकों को अविलंब भुगतान की व्यवस्था की जाए। और निर्माण से जुड़े समस्त सरकारी कार्यों में मनरेगा मजदूरों को काम दिया जाए।