राजनीति

अजीत सिंह के निधन के बाद चौधरी खानदान की राजनीतिक विरासत को कितना संभाल पाएंगे जयंत

नई दिल्ली, राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह का निधन पिछले दिनों दिल्ली में हुआ। अजीत सिंह के निधन के बाद से राजनीतिक गलियारों में दो सवाल पूछे जा रहे हैं। पहला सवाल तो यह है कि अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी आखिर चौधरी खानदान की राजनीतिक विरासत को कितना संभाल पाएंगे और इसे कितना आगे बढ़ा पाएंगे? दूसरा सवाल यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाट राजनीति का नया चेहरा कौन होगा? क्या अजीत सिंह की ही तरह उनके बेटे जयंत चौधरी जाट नेता के रूप में खुद को उभार पाएंगे? जाहिर सी बात है कि इस तरह के सवाल उत्तर प्रदेश में खासकर पश्चिमी यूपी में जरूर उठ रहे है। राष्ट्रीय लोक दल और जयंत चौधरी के लिए वर्तमान में परिस्थितियां बिल्कुल अलग है। एक तो उसे अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष और जमीनी नेता अजित सिंह को गंवाना पड़ा है तो दूसरी औरर चुनौती यह है कि महज 7 से 8 महीने बाद ही चुनाव भी होने है। चुनाव तक राष्ट्रीय लोक दल खुद को कितना मजबूत कर पाएगी यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन वर्तमान समय में पंचायत चुनाव ने राष्ट्रीय लोक दल को जमीनी मजबूती जरूर प्रदान की है।
राष्ट्रीय लोक दल का पंचायत चुनाव में प्रदर्शन किसान आंदोलन की भी वजह से है। इन सबके बीच राष्ट्रीय लोकदल की आगे की रणनीति क्या होगी इस बात की चर्चा आने वाले कुछ दिनों में होने वाली बैठक में जरूर की जाएगी। साथ ही साथ यह भी तय माना जा रहा है कि जयंत चौधरी के कंधों पर चौधरी चरण सिंह खानदान की तीसरी पीढ़ी को आगे बढ़ाने की सबसे चुनौतीपूर्ण राजनीति की जिम्मेदारी है। चौधरी चरण सिंह भारत के पूर्व प्रधानमंत्री। उन्हें बड़े चौधरी के नाम से भी जाना जाता था। चौधरी चरण सिंह ने एक वोट बैंक तैयार किया था और वह था किसानों का वोट। इस वोट बैंक में ना कोई जाति थी और ना ही मजहब। सिर्फ और सिर्फ किसानों की रणनीति और राजनीति थी। बड़े चौधरी यानी कि चौधरी चरण सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान के किसानों में अपनी अच्छी पकड़ बनाई थी। चौधरी चरण सिंह ऐसी मानसिकता को तैयार करने में कामयाबी पाई थी जो उनका हमेशा साथ देता रहा। वे कहते थे किसान सिर्फ एक किसान है। उसकी ना कोई जाती है और ना ही कोई मजहब है। यही वोट बैंक चौधरी चरण सिंह का सबसे बड़ी ताकत बनी। इसी के बलबूते उन्होंने हिंदी बेल्ट या यूं कह लें जाटलैंड में अपने रसूख को स्थापित करने में कामयाबी पाई।
वही बात छोटे चौधरी यानी कि अजीत सिंह की करें तो वह चौधरी चरण सिंह के किसान वोट को अच्छी तरह से सहेज नहीं पाए। विलायत में इंजीनियरिंग करने के बाद राजनीति में आए चौधरी अजीत सिंह किसान की बजाय जाट नेता के तौर पर खुद को उभारने में कामयाब रहे। केंद्र की सरकार में उन्होंने अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के साथ जरूर काम किया लेकिन खुद की अलग पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो सके। यही कारण रहा कि उनका दायरा सिर्फ और सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित होता चला गया। अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग के राजनीतिक गठबंधनों की वजह से उन्हें देश का दूसरा मौसम वैज्ञानिक कहा जाने लगा। इन्हीं गठबंधनों की वजह से उनका वोट बैंक भी बिखरने लगा और चौधरी अजीत सिंह के राजनीति का सबसे कठिन दौर की भी शुरुआत हो गई।
चौधरी अजीत सिंह की राजनीति को उस समय सबसे ज्यादा नुकसान हुआ जब 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासी समीकरण को पूरी तरह से बदल डाला। जो जाट अजित सिंह का वोट बैंक माना जाता था वह भाजपा के साथ चला गया। हालत यह रही कि चौधरी अजीत सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल का 2014 के चुनाव में उत्तर प्रदेश से पूरी तरह से सफाया हो गया। उन्हें खुद और उनके बेटे जयंत चौधरी को हार का सामना करना पड़ा। 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में भी अपनी पार्टी के वोट बैंक वापस पाने में अजीत सिंह नाकामयाब रहे। 2019 के चुनाव में भी यही सिलसिला जारी रहा। 2019 में भी अजीत सिंह और जयंत चौधरी को हार का सामना करना पड़ा। हालांकि जब केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों के विरोध शुरू हुआ तो अजीत सिंह और उनकी पार्टी अपने वोट बैंक की वापसी की उम्मीद कर रहे थे। ऐसी परिस्थिति में माना जा रहा था कि किसान वोट और जाट वोट एक होकर राष्ट्रीय लोकदल को मजबूत करेगा। लेकिन शायद यह सब अजीत सिंह को देखना नहीं लिखा था।
जाट वोट और किसान वोट को एक कर जयंत चौधरी को राष्ट्रीय लोक दल को फिर से स्थापित करने की बड़ी चुनौती है। इसकी परीक्षा भी सात आठ महीनों के भीतर ही होगी जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होंगे। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या जयंत चौधरी अजीत सिंह की स्थान की भरपाई कर पाएंगे? क्या जाट बिरादरी जयंत चौधरी को अपना नेता स्वीकार करेगी? हालांकि राजनीतिक विश्लेषक इसे आसान नहीं मानते। जयंत चौधरी के साथ सहानुभूति जरूर होगी लेकिन वह वोट में कितना तब्दील होगा यह भी देखना होगा। साथ ही साथ आने वाले दिनों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किस तरह की राजनीतिक समीकरण तैयार होते है इस पर भी सबकी निगाहें रहेगी। वर्तमान में देखें तो जयंत समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में है। लेकिन अजीत सिंह के निधन के बाद से गठबंधन में मोलभाव करने में भी जयंत चौधरी की असली परीक्षा होगी। हालांकि कुछ राजनीतिक विशेषज्ञ जरूर मानते हैं कि जयंत चौधरी ने खुद को स्थापित किया है। लेकिन अजीत सिंह की गैरमौजूदगी में वह कितना दमखम दिखा पाते हैं यह आने वाला समय बताएगा।