लखनऊ : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के 45वें स्थापना दिवस के शुभ अवसर पर बृहस्पतिवार, 30 दिसम्बर, 2021 के शुभ अवसर पर ‘डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद की भाषा एवं साहित्य दृष्टि‘ विषय पर केन्द्रित संगोष्ठी एवं काव्य गोष्ठी का आयोजन यशपाल सभागार, हिन्दी भवन, लखनऊ में पूर्वाह्न 11.00 बजे किया गया। डॉ0 सदानन्द प्रसाद गुप्त, माननीय कार्यकारी अध्यक्ष, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान की अध्यक्षता में आयोजित संगोष्ठी एवं काव्य गोष्ठी में व्याख्यान देने हेतु डॉ0 भगवान सिंह, भागलपुर एवं शिवदयाल, पटना आमंत्रित थे।
दीप प्रज्वलन, माँ सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण, पुष्पार्पण के उपरान्त प्रारम्भ हुए कार्यक्रम में निराला जी अमर पंक्तियाँ ‘वर दे वीणा वादिनी वर दे‘ की संगीतमय प्रस्तुति डॉ0 कामिनी त्रिपाठी द्वारा की गयी। संगाष्ठी एवं काव्य गोष्ठी का प्रारम्भिक संचालन डॉ0 अमिता दुबे, प्रधान सम्पादक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान तथा कवि सम्मेलन का संचालन दीपक गुप्त, हरियाणा ने किया।
आंमत्रित वरिष्ठ साहित्यकार एवं कविगणों का स्वागत पवन कुमार, निदेशक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा किया गया। अभ्यागतो का स्वागत करते हुए संस्थान के निदेशक, पवन कुमार ने कहा- उ0प्र0हिन्दी संस्थान के स्थापना दिवस की अनन्त शुभकामनाएँ। हिन्दी संस्थान के 45वें स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी एवं काव्य गोष्ठी में उपस्थिति आदरणीय डॉ0 भगवान सिंह एवं शिवदयाल जी का बहुत-बहुत स्वागत एवं अभिनन्दन है। ‘डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद की भाषा एवं साहित्य दृष्टि‘ विषय पर केन्द्रित इस संगोष्ठी में स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर महत्वपूर्ण जानकारी हमें प्राप्त होगी ऐसा हमारा विश्वास है।
मा0कार्यकारी अध्यक्ष, डॉ0 सदानन्द प्रसाद गुप्त जी के प्रति भी विशेष अभिवादन है। आपके मार्ग दर्शन में हम निरन्तर नये विषयों के साथ विचार विमर्श को उत्सुक रहते हैं।
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की स्थापना 30 दिसम्बर, 1976 को जिन उद्देश्यों को लेकर की गयी थी उनके प्रति हम निरन्तर सजगता से दृढ़ संकल्प होकर कार्य करते रहते हैं। साहित्यकारों/हिन्दी प्रेमियों का सम्बल हमें प्राप्त होता रहता है। आज के दिन हिन्दी संस्थान परिवार संकल्प लेता है कि हम इसी प्रकार हिन्दी भाषा एवं साहित्य के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के उन्नयन के प्रति भी सदैव की भांति समर्पित रहेंगे।
इसी क्रम में डॉ0 कामिनी त्रिपाठी जिन्होंने वाणी वंदना प्रस्तुत की उनका भी स्वागत है। हमारे आमंत्रण पर पधारे सभी हिन्दी प्रेमियों का स्वागत है। आपका सब का सहयोग हमंे निरन्तर मिलता रहता है। मीडिया कर्मियों का स्वागत एवं आभार।
विचार गोष्ठी में डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद की भाषा एवं साहित्य दृष्टि पर विचार रखते हुए डॉ0 भगवान सिंह ने कहा -डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद यदि राष्ट्रपति न भी बने होते तो भी वे देशरत्न ही होते। राजेन्द्र बाबू का हिन्दी के प्रति प्रेम प्रारम्भ से ही था। राजेन्द्र बाबू का चिन्तन प्रतिबद्धत्ता, समर्पण देश के प्रति बिल्कुल अलग था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के माध्यम से उनकी भाषा दृष्टि, साहित्य दृष्टि स्पष्ट परिलक्षित होती है। भाषा के जातीय स्वरूप की चिन्ता वे सदा करते थे। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना के साथ डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद की निष्ठा और समर्पण स्पष्ट हो जाता है, जिससे उनकी सम्बद्धता महत्वपूर्ण थी। राजेन्द्र बाबू भाषा के परिकार की बात करते हैं परन्तु हिन्दुस्तानी को स्वीकार करना नहीं चाहते थें। राजेन्द्र बाबू को साहित्य की गम्भीर समझ थी वे साहित्य की भारतीय परम्परा के पोषक थे।
पटना से पधारें शिवदयाल ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा- डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद जी का समय चुनौती पूर्ण समय था। अपनी मेधा के बल पर वे अल्प समय में ख्यातिप्राप्त करने वाले राजनेता होने के साथ-साथ वे उस समय के शिखर पुरुष महात्मा गांधी और गोखले ने उनसे स्वयं सम्पर्क किया था। उनके जीवन में निष्ठा, समर्पण और तेजस्विता निरन्तर दिखायी देती थी। स्त्रियों की स्थिति को देखकर वे बहुत चिन्तित थे। उन्होंने अपने परिवार की स्त्रियों को पर्दाप्रथा के उन्मूलन के लिए आगे किया था। उनकी दूरदृष्टि भी उनका प्रभा मण्डल बनाती थी। उनकी संगठन शक्ति विस्मयकारी थी। 1934 में डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद की जीवनी लिखी गयी थी जिसका शीर्षक था ‘देश पूज्य डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद‘। उन्हें देशरत्न की उपाधि भी दी गयी।
डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद का हिन्दी और अन्य भाषाओं से जुड़ी संस्थाओं से गहरा सम्बन्ध रहा। हिन्दी का ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार होना चाहिए। उन्होंने प्रारंम्भिक शिक्षण का माध्यम मातृ भाषा को बताया और उच्च शिक्षा के लिए हिन्दी के माध्यम को स्वीकार किया। उनकी भाषा के प्रति निष्ठा चमत्कृत करने वाली थी। उन्होंने भाषा को राष्ट्रीय चेतना के साथ जोड़कर देखा। साहित्य की राजनैतिक भूमिका पर उन्होंने महत्वपूर्ण विचार रखे। उनका हिन्दी भाषियों से आग्रह था कि वे बहुभाषी हों, हिन्दी को शब्द सम्पदा बढ़ाने पर जोर दें।
डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद की दृष्टि संकुचित नहीं थी वे अपनी संस्कृति और जड़ों की ओर लौटना चाहते थे भारत को उसका व्यक्तित्व देना चाहते थे।
आशीर्वचन एवं अध्यक्षीय काव्य पाठ करते हुए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष, मा0 डॉ0 सदानन्दप्रसाद गुप्त ने संस्थान के 45वें स्थापना दिवस पर संस्थान के सभी अधिकारियों/कर्मचारियों को तथा संगोष्ठी एवं काव्य गोष्ठी में उपस्थित श्रोताओं को धन्यवाद व आशीर्वचन दिया। उन्होंने कहाँ राजेन्द्र बाबू पत्र के आइने में महत्वपूर्ण पुस्तक है जिसे उनकी पौत्री तारा सिन्हा जी ने तैयार किया है। इस पत्रों के माध्यम से राजेन्द्र बाबू के व्यक्तित्व को समझना सहज हो जाता है। डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद एक सफल छात्र, प्रतिष्ठित अधिवक्ता, सफल अध्यापक, समर्पित स्वतंत्रता सेनानी, कुशल प्रशासक थे। उन्हें विदेह भी कहा जा सकता है। उन्होंने अपने जीवन को चरितार्थ किया। राजेन्द्र बाबू भारतीयता के पक्षधर थे, उसके मूर्तिमान स्वरूप थे। वे शब्द और कर्म की एकता के प्रतीक थे। राजेन्द बाबू की विश्व में अपार प्रतिष्ठा थी उनको अपने भारतीय व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण अत्यन्त आदर मिला।
शिवओम अम्बर, फर्रुखाबाद की पंक्तियाँ थी- जीने की ख़्वाहिश है तो, करने की तैयारी रख, श्रीमद् भगवद्गीता पढ़, युद्ध निरन्तर जारी रख, फ़ाकों को भी मस्ती में जीते हैं, बस्ती-बस्ती फ़रियाद नहीं करते, सच कहते हैं अथवा चुप रहते हैं, हम लफ़्ज़ों को बर्बाद नहीं करते.।
कमलेश मौर्य ‘मृदु‘, सीतापुर ने पढ़ा – अब न चायना से न पाकिस्तान से डर लगता है, न तो हिन्दू से न मुसलमान से डर लगता है, न जाने कब कहाँ किस को चपेट में ले ले, हमें तो नये वैरिएन्ट ओमीक्रान से डर लगता है।
जय प्रकाश शर्मा ‘जनकवि‘, प्रयागराज ने पढ़ा – लेखक साहित्यकार पत्रकार कविकुल, देश को दिशाविहीन होने से बचाते हैं।
वशिष्ठ अनूप, वाराणसी ने पढ़ा – परख इंसान की होती है अक्सर दो ही मौकों पर, कहाँ छोड़ी न पुछारी, कहाँ झुकना नहीं छोड़ा, थके थे पाँव, मंजिल दूर थी, राहे थी पथरीली, वचन ख़ुद को दिया था इसलिए चलना नहीं छोड़ा।
कमलेश राय, मऊ ने पढ़ा – बाद मुद्दत के मिली रोशनी है आजादी, हरेक होंठ पे ठहरी हंसी है आजादी, सीख लो इसकी तहे दिल से हिफाज़त करना बहुत मंहगी है, बहुत कीमती है आजादी।
डॉ0 प्रकाशचन्द्र गिरि, बलरामपुर ने पढ़ा -भले ही काव्य कसौटी पे ये बिखर जाये मेरा प्रयास है शब्दो में आँच भर जाये, अजीब नगरी है अदभुत मनोजटिलता है, अगर किसी की प्रशंसा करो, वो डर जाये।
सतीश आर्य, गोण्डा ने पढ़ा – मैथिली में, ब्रज में बिहंसी कबौं, अवधी बनी अधरान पै आई। नीकी बुँदेली में लागी कबौं, बनि भोजपुरी रसना सर साई। ‘मोको लिख्यो है कहा‘ कहिकै, रतनाकर की कविता बनि धाई। घूंघुरु बाँधि कै नाची कबौं, बकौ नीर भरी बदरी बनि छाई।
बलराम श्रीवास्तव, मैनपुरी ने पढ़ा -प्राण पर देह का आवरण जिंदगी देह के ग्रंथ का व्याकरण जिंदगी रावणी शक्ति जब संत बनकर चली तो लगा जानकी का हरण जिंदगी।
जयकृष्ण राय ‘तुषार‘, प्रयागराज ने पढ़ा -माँ भारती का गर्व है ये भाषा का विहान है यह अवध की शान है ये हिन्दी संस्थान है, यह काव्य की उपासना है मन्दिरों की आरती श्रेष्ठ हैं सम्मान सब शिखर है अमृत भारती यह भाषा छन्द व्याकरण विमर्श को संवारती परम्परा के साथ धर्म ज्ञान और विज्ञान है, यह अवध की शाम है।
अतुल वाजपेयी, लखनऊ ने पढ़ा – बल, बुद्धि, पराक्रम के सागर जिनके आयुध धनु सायक हैं, प्रभु राम हमारे नायक हैं प्रभु राम हमारे नायक हैं,।
पवन कुमार, निदेशक, उ0प्र0हिन्दी संस्थान ने कुछ पंक्तियाँ पढ़ी धूप में नहाए थे, रोशनी के पहरे थे, फिर भी इन दरख्तों के साये कितने गहरे थे देखता रहा मुझको आइना भी हैरत आज मेरे चेहरे पर जज्ब कितने चेहरे थे।
दीपक गुप्त, हरियाणा ने कहा- अगर मैं झूठ बोलू तो मेरा किरदार मरता है, जो बोलू सच तो फिर भूखा मेरा परिवार मरता है,।
कार्यक्रम का संचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन डॉ0 अमिता दुबे, प्रधान सम्पादक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने किया।
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