आगरा, आल इंडिया उलेमा बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व शाही इमाम जामा मस्जिद, आगरा मुफ़्ती मुदस्सिर खान क़ादरी ने देश की अवाम से अपील की है कि रमज़ान के मुक़द्दस माह में देश के हर शहर में बैत अल-माल क़ायम किये जाये जिससे ज़कात के पैसे का ठीक तरह से इस्तेमाल हो सके,
मुफ़्ती मुदस्सिर ने कहा कि इस्लाम ने मुसलमानों के लिए पांच फर्ज तय किए हैं. तौहीद यानि एक अल्लाह और मुहमम्द (सअव) के आखिरी नबी होने पर यकीन. दिन में पांच वक्त की नमाज. साल में एक महीने के रोज़े. ज़िंदगी में एक बार हज और हर साल अपनी सालाना बचत का 2.5 फीसदी हिस्सा गरीबों, यतीमों, विधवाओं, मुहताजों और दूसरे ज़रूरतमंद लोगों पर खर्च करना,ज़कात की अहमियत को कुरआन में ये कह कर बयान किया गया है कि जिसने अपने माल की ज़कात नहीं दी उस पर अज़ाब होगा . कुरआन में 82 बार आदेश दिया गया है ‘नमाज़ कायम करो और ज़कात दो.’ आम तौर पर रमज़ान के महीने में साहिब-ए-निसाब (अमीर) मुसलमान ज़कात देते हैं. साहिब-ए-निसाब वो है जिसकी सालाना बचत 75 ग्राम सोने की क़ीमत के बराबर है. आमतौर पर मुसलमान रमज़ान के महीने में ही अपनी ज़कात निकालते हैं.
मुफ़्ती साहब में कहा कि मुल्क की हर शहर में आवामी लोग उलेमा को साथ लेकर बैत उल माल क़ायम करें , जिससे ज़कात का इस्तेमाल सही से किया जा सके,
मुफ़्ती साहब ने कहा कि देश भर में हर साल क़रीब 50 हज़ार करोड़ रुपए की ज़कात निकलती है. मुसलमानों के दिमाग में ये बात कूट-कूट कर भर दी है कि ज़कात के पैसे का इस्तेमाल सिर्फ़ दीनी तालीम हासिल करने वाले यतीम बच्चों की परवरिश और उनकी तालीम पर ही होना चाहिए. यही वजह है कि ज्यादातर मुसलमान मदरसे चलाने वालों को ही अपनी ज़कात का पैसा देना बेहतर समझते हैं. ऐसे में वो तमाम यतीम बच्चे, विधवा औरतें, मोहताज, और ऐसे लोग महरूम (वंचित) रह जाते हैं जिन्हें प्राथमिकता के तौर पर ज़कात का पैसा मिलना चाहिए.
संवाद , अज़हर उमरी