इंदिरा गांधी द्वारा संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए समाजवाद और पंथ निरपेक्ष शब्द को हटाने का है षड्यंत्र, कांग्रेस इस षड्यंत्र को करेगी विफल
जो काम सीधे सरकार नहीं कर सकती उसे न्यायपालिका के एक हिस्से से करवा रही है
स्पीक अप #47 में बोले अल्पसंख्यक कांग्रेस नेता
लखनऊ, । भाजपा सरकार इंदिरा गांधी द्वारा संविधान में 42 वें संशोधन के ज़रिये जोड़े गए समाजवाद और पंथनिरपेक्ष शब्द को हटाने के लिए माहौल बना रही है। इस षड्यंत्र में न्यायपालिका का एक हिस्सा भी शामिल है। पूजा स्थल अधिनियम 1991 में बदलाव की कोशिश भी इसी षड्यंत्र का हिस्सा है। जो काम सरकार सीधे नहीं कर सकती उसे वह न्यायपालिका के एक हिस्से से करवा रही है। इसलिए आज संविधान को बचाने के लिए न्यायपालिका के दुरूपयोग के खिलाफ़ मुखर होने की ज़रूरत है। ये बातें अल्पसंख्यक कांग्रेस अध्यक्ष शाहनवाज़ आलम ने स्पीक अप कार्यक्रम की 47 वीं कड़ी में कहीं।
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना से समाजवाद और पंथनिरपेक्ष शब्द हटाने का माहौल बनाने के उद्देश्य से ही 26 जनवरी 2015 को गणतंत्र दिवस के अवसर पर जारी सरकारी विज्ञापनों में पुराने प्रासावना की प्रति प्रकाशित करवाई गयी जिसमें समाजवाद और पंथनिरपेक्ष शब्द नहीं थे। इसका विरोध होने पर सरकार ने इसे भूल बता कर अपनी गलती छुपाने की कोशिश की थी। लेकिन उसका मूल मकसद लोगों की प्रतिक्रिया का अंदाज़ा लगाना था।
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि 19 मार्च 2020 को भाजपा ने एक बार फिर राज्य सभा में राकेश सिन्हा से प्राइवेट मेम्बर बिल के ज़रिये संविधान से समाजवाद शब्द हटाने की अर्जी लगवाई। इसीतरह 3 दिसंबर 2021 को भी राज्यसभा में केजे अल्फोंस से समाजवाद और पंथ निरपेक्ष शब्द को संविधान की प्रस्तावना से हटाने की मांग वाला प्राइवेट मेंबर बिल पेश करवाया गया। इस पूरे प्रकिया के दौरान राज्य सभा के उपसभापति का रवैय्या संविधान विरोधी रहा। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट केशवानंद भारती और एसआर बोम्मयी समेत कई मामलों में स्थापित कर चुका है कि संविधान की प्रस्तावना में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके न तो राज्यसभा के उपसभापति ने और ना ही सुप्रीम कोर्ट ने इसका स्वतः संज्ञान ले कर विरोध किया। यहाँ तक कि 8 दिसंबर 2021 को जम्मू कश्मीर के मुख्य न्यायाधीश पंकज मित्तल ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कह दिया कि प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ने से देश की छवि धूमिल हो गयी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ़ भी कोई कार्यवाई नहीं की। जिससे सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भी संदेह के दायरे में आ जाती है। 24 दिसंबर 2021 को इसके खिलाफ़ अल्पसंख्यक कांग्रेस ने प्रदेश भर से राष्ट्रपति को ज्ञापन भेज कर अपना विरोध दर्ज कराया था।
शाहनवाज़ आलम ने कहा 370 या आदिवासियों के उत्पीड़न के मामलों में न्यायपालिका समय लगाती है लेकिन इमर्जेंसी के 45 साल बाद उसकी वैधानिकता की जाँच के लिए याचिका स्वीकार कर लेती है। जबकि जनता पार्टी सरकार के ऐसे प्रयासों पर 45 साल पहले ही सुप्रीम कोर्ट अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुका है।
इसीतरह 6 अक्टूबर 2017 देश के कई आतंकी घटनाओं में लिप्त पाए गए अभिनव भारत के एक ट्रस्टी पंकज फड़नीस की गांधी जी की हत्या पर आये फैसले को साज़िश बताने वाली याचिका को जज एसए बोबड़े ने स्वीकार कर लिया। जबकि गांधी जी के परपौत्र तुषार गांधी की आपत्ति को उनका लोकस स्टैंडी पूछते हुए ख़ारिज कर दिया। ऐसा लगता है कि इस याचिका का मकसद गांधी जी की हत्या पर संघ परिवार के नज़रिए को क़ानूनी वैधता देना है। उन्होंने कहा कि एसए बोबड़े के मुख्य न्यायाधीश बनने पर भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस ने जैसी खुशी भरी प्रतिक्रिया दी थी वैसा कभी नहीं हुआ था। उन्होंने बोबड़े परिवार से सावरकर के रिश्ते को जोड़ते हुए ट्वीट में कहा था कि उनके पिता के घर पर सावरकर रुके थे। बोबड़े अपने आप में एक संस्था हैं और स्वतंत्रता आंदोलन में इनके परिवार ने अहम भूमिका निभाई थी। शाहनवाज़ आलम ने कहा कि सावरकर अंग्रेज़ों से माफ़ी मांग कर छूटे थे और गांधी जी की हत्या में मुख्य षड्यंत्रकारी के बतौर उन्हें गिरफ्तार किया गया था। ऐसे में सावरकर को अपने घर में वही पनाह दे सकता हो जो सावरकर के इन देश विरोधी कृत्यों का समर्थक हो। जाहिर है बोबड़े साहब की पक्षधरता संदेह के दायरे में थी। इसलिए उनके द्वारा 13 मार्च 2021 को पूजा स्थल अधिनियम 1991 को चुनौती देने वाली भाजपा नेता अश्वनी उपाध्याय की याचिका को स्वीकार किया जाना भी न्यायिक से ज़्यादा राजनीतिक मामला ही माना जाना चाहिए। जिसके बाद देश का सौहार्द बिगाड़ने के उद्देश्य से एक साज़िश के तहत निचली अदालतों में इस क़ानून को चुनौती देते हुए याचिकाएं डलवाई जा रही हैं और न्यायपालिका का एक हिस्सा सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ़ जाते हुए उन्हें बहस के लिए स्वीकार कर रहा है। इससे पहले भी बोबड़े साहब ने मुख्य न्यायधीश रहते हुए 7 जनवरी 2021 को किसान आंदोलन पर मौखिक टिप्पणी की थी कि कोरोना नियमों का पालन नहीं किया गया तो वहाँ तब्लिगी जमात जैसे हालात हो जाएंगे। जबकि दिसंबर 2020 में ही बॉम्बे, मद्रास और कर्नाटक हाई कोर्ट ने तब्लिग जमात को क्लीन चिट दे दिया था। शाहनवाज़ आलम ने आरोप लगाया कि यह टिप्पणी जानबूझ कर मीडिया को मुसलमानों को बदनाम करने का अवसर देने के लिए किया गया था। उनका यह आचरण न्यायतंत्र की स्थापित गरिमा के विरुद्ध था।
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि संविधान की रक्षा के लिए न्यायपालिका के राजनीतिक दुरूपयोग के खिलाफ़ मुखर होना इस वक़्त देशभक्ति का सबसे बड़ा पैमाना होना चाहिए। अल्पसंख्यक कांग्रेस जून में इसके लिए व्यापक अभियान चलायेगा।
संवाद। अज़हर उमरी