संवाद , दानिश उमरी
आगरा ,रामलीला मनःकामेश्वर मठ पर रामलीला के मंचन के दौरान राम की बारात का मिथिला आगमन पर जनकपुरवासियो हास-परिहास, राम-सीता विवाह, कन्यादान,मंथरा-कैकेयी संवाद, सहित अन्य लीलाओं का मंचन किया गया।
मंगल मूल लगन दिनु आवा , हिमरितु अगहनु मासु सुहावा।
भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुवीर बिआहू।।
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं संवारन लागे।।
अर्थात- चौदहों लोकों में उत्साह भर गया कि जानकी और श्रीराम का विवाह होगा। यह सुनकर लोग प्रेममग्न हो गए और रास्ते, घर तथा गलियां सजाने लगे।
उस समय हेमंत ऋतु थी और अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र योग आदि देखकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार किया और वह लग्न पत्रिका नारदजी के हाथों राजा जनक को पहुंचाई। शुभ मुहूर्त में श्रीराम की बारात आ गई। राजा जनक ने सभी बारातियों का समधी दशरथ के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिए।
दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर मंत्रोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनंद में भर गए। राजाओं के अंलकार स्वरूप महाराज जनक न लोक और वेद की रीति के अनुसार कन्यादान किया।
श्रीराम व सीता का विवाह संपन्न होने पर राजा जनक और दशरथ बहुत प्रसन्न हुए। ऋषि वसिष्ठ के कहने पर दूल्हा व दुल्हन को एक आसन पर बैठाया गया।
श्रीराम व सीता का विवाह संपन्न होने के बाद ऋषि वशिष्ट ने राजा जनक व उनके छोटे भाई कुशध्वज की पुत्रियों मांडवी, श्रुतकीर्ति व उर्मिला को बुलाया।
जनक ने राजा दशरथ की सहमति से मांडवी का विवाह भरत से, उर्मिला का विवाह लक्ष्मण व श्रुतकीर्ति का विवाह शत्रुघ्न से कर दिया। अपने सभी पुत्रों का विवाह होते देख राजा दशरथ बहुत आनंदित हुए।
सीता के कन्यादान में रामलीला में उपस्थित लोगों के द्वारा भी भाव पूर्ण तरीके से कन्यादान किया।
आगे लीला में श्रीराम के राजतिलक की घोषणा व केकैयी के कोपभवन में जाने की लीला का मंचन किया गया। राजा दशरथ, महर्षि वशिष्ठ से विमर्श के उपरांत श्रीराम का राजतिलक करने की घोषणा करते हैं। श्रीराम के राजतिलक की सूचना पाकर मंथरा चिंतित हो जाती है।
मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं।
मंथरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। सुंदर मंगलमय बधावे बज रहे हैं। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है? (उनसे) श्री रामचन्द्रजी के राजतिलक की बात सुनते ही उसका हृदय जल उठा।
वह दुर्बुद्धि, नीच दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रात ही रात में बिगड़ जाए। वह उदास होकर भरतजी की माता कैकेयी के पास गई।
रानी कैकेयी ने हँसकर कहा- तू उदास क्यों है? मंथरा कुछ उत्तर नहीं देती, केवल लंबी साँस ले रही है और त्रियाचरित्र करके आँसू ढरका रही है।
रानी हँसकर कहने लगी कि तू बहुत बढ़-बढ़कर बोलने वाली है। मेरा मन कहता है कि लक्ष्मण ने तुझे कुछ सीख दी है (दण्ड दिया है)। तब भी वह महापापिनी दासी कुछ भी नहीं बोलती।
तब रानी ने डरकर कहा- अरी! कहती क्यों नहीं? श्री रामचन्द्र, राजा, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न कुशल से तो हैं? यह सुनकर कुबरी मंथरा के हृदय में बड़ी ही पीड़ा हुई।
वह कहने लगी-हे माई! हमें कोई क्यों सीख देगा और मैं किसका बल पाकर बढ़-बढ़कर बोलूँगी।
रामचन्द्र को छोड़कर आज और किसकी कुशल है, जिन्हें राजा युवराज पद दे रहे हैं।
भरत के राजतिलक के लिए कुटिल चाल चलती है। मंथरा कैकेयी को राजा दशरथ, श्रीराम और कौशल्या के खिलाफ भड़काती है।
मंथरा कहती है कि श्रीराम के राजा बनने पर भरत राम के दास बन जाएंगे। मंथरा उससे कोप भवन में जाने और दशरथ के दिए दो वरदानों को मांगती है।
लीला के अंत मे श्रीमहन्त जी द्वारा आरती कर विश्राम दिया गया