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श्री राम वनवास लीला का मंचन

संवाद , दानिश उमरी

आगरा, श्री रामलीला मनःकामेश्वर में नवरात्र के सप्तम दिवस पर श्री रामलीला में केवट भक्ति, दशरथ मरण, भरत कैकई संवाद एवं भरत मिलाप की लीलाओं का मंचन किया गया।
सर्वप्रथम भागवन राम वनवास के लिए जाते हैं, जहां उनकी भेंट निषाद राज से हुई, जो कि भीलों के राजा हैं। वह उनकी सेवा करते हैं, वंदना करते हैं।
भगवान ने निषाद राज से गंगा पार कराने के लिए केवट को बुलवाने को कहा। मगर केवट ने गंगा पार उतारने से मना कर दिया और कहा की आपके चरण रज से पत्थर की शिला नारी बन गयी थी, पता नहीं मेरी नाव का क्या होगा। केवट ने भगवान के सामने शर्त रखी कि नाव में बैठाने से पहले पांव पखारने होंगे। जिसपर भगवान श्रीराम अपने चरण धोने के लिए केवट को बोलते हैं, इसके बाद केवट रामजी को गंगा पार उतार देता है। उसके बाद प्रभु चित्रकूट में निवास करते हैं।

वहीं सुमंत राम को सरयू के किनारे नाव से रवाना कर राजा दशरथ के पास आते हैं। सुमंत कहते है कि राम लक्ष्मण ने मुझसे कहा कि महाराज का ध्यान रखना। हम 14 वर्ष के बाद वापस आएंगे और वह आगे बढ़ जाते हैं। यह सुनकर दशरथ बड़े दुःखी होते हैं और विलाप करते करते अपने प्राण त्याग देते हैं।

गुरू वशिष्ठ सुमंत से कहते है कि भरत और शत्रुघ्न को उनके ननिहाल से बुलवाओ ।

उधर भरत ननिहाल से लौटते हैं तो श्रीराम के वनवास एवं पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर दुःखी हो जाते हैं। वे माता माता कैकई से इन सब अनहोनियों का कारण पूछते हैं तब माता कैकई उन्हें पूरी बात बताती हैं। पूरी बात सुनकर भरत माता कैकई पर बहुत अधिक क्रोधित होते हैं व माता कौशल्या से कैकई की गलती की क्षमा माँगते हैं ।

राजा दशरथ को अंतिम संस्कार किया जाता है। उसके बाद भरत और तीनों रानियां राम को लेने के लिए वन में जाती हैं। भरत कहते हैं कि भैया राम यदि आप वापस नहीं चलोगे तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा।

राम भरत को समझाते हैं और कहते हैं कि पिताजी का वचन निभाना हमारा कर्तव्य है। भरत कहते हैं कि आपका चरण पादुका लेकर जाऊंगा और 14 वर्ष तक उसे राजगद्दी पर रख कर वन में चला जाऊंगा। यह कहकर भरत राम की चरण पादुका लेकर अयोध्या वापस आ जाते हैं।

वहीं वन में सीताजी को अशुभ स्वप्न आता है। जिसमें वे माताओं को मलीन भेष में देखती हैं।

उधर निषादराज श्री राम पर आक्रमण के डर से भरत को वन में रोकते हैं। भरत उन्हें अपने आशय से अवगत कराते हैं। लक्ष्मण को पश्चाताप होता है की उन्होंने इसके पूर्व भरत की निष्ठा पर संदेह किया था।

वन में भरत व श्रीराम का मिलाप होता है। तब वे श्रीराम को पिता की मृत्यु के बारे में बताते हैं। श्रीराम बहुत दुःखी होते हैं, भरत राम से वापस अयोध्या लौटने का आग्रह करते हैं। मगर श्रीराम विवश होने की बात कहकर लौटने से मना कर देते हैं।

इस पर भरत श्रीराम की खड़ाऊ अपने सिर पर रख कर ले जाते हैं। चरण पादुका लेकर भरत वापस अयोध्या गए और उन्हें सिंहासन पर आसीन कर धरती पर अपना बिछौना बनाकर राम के सेवक के रूप में अयोध्या का राज चलाने लगे।