कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है
परलोक में स्वजन या धन शरणदायी नहीं होते
आगरा ।राजा की मंडी जैन स्थानक में भगवान महावीर की अंतिम वाणी उत्तराध्ययन सूत्र के चतुर्थ अध्याय असंस्कृत की व्याख्या करते हुए राष्ट्र संत नेपाल केसरी डॉक्टर मणिभद्र ने कहा की आज हमारा जीवन इतने प्रमादों से भर गया है की हम पेट की चिंता छोड़कर पेटी को भरने में जीवन भर पाप कर्म करने में लगे रहते है और यह भूल जाते है की जो पाप कर्म हम कर रहे है उसका फल भी हमें ही भुगतना होगा।
एक सुंदर भजन के माध्यम से डॉक्टर मणिभद्र ने संदेश दिया की
“दौलत के दीवानों सुन लो,एक दिन ऐसा आएगा,
धन,दौलत और महल,खजाना,पड़ा यही रह जायेगा
अंत समय कोई साथ न देगा,आखिर होगी चला चली,
लेलो लेलो कोई वीर का प्यारा,
आवाज लगाए गली गली ।
असंस्कृत की व्याख्या करते हुए राष्ट्र संत ने बताया की असंस्कृत’ का अर्थ है जो जुड़ने योग्य न हो। भगवान् ने जीवन रूपी धागे को ‘असंस्कृत’ शब्द से संकेतित किया है। अर्थात् जीवन का धागा ऐसा है जो एक बार टूट जाने पर पुनः जोड़ा नहीं जा सकता है। भगवान महावीर ने कहा है कि इस क्षणभंगुर और असंस्कृत जीवन में क्षण मात्र के लिए भी प्रमाद करना विज्ञ साधक के लिए उचित नहीं है।
नेपाल केसरी डॉक्टर मणिभद्र ने समझाते हुए कहा कि प्रमाद का अर्थ है-सुषुप्त चेतना और अप्रमाद का अर्थ है जागृति। यहाँ शयन और जागरण का संबंध शरीर से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक चेतना से अनुस्यूत है। आत्म-गुणों की जागृतावस्था, साधक की अप्रमाद अवस्था है, और आत्म-गुणों की सुप्तावस्था, साधक की प्रमाद-अवस्था है। प्रमाद पाप है, और अप्रमाद धर्म है।
प्रमादी व्यक्ति स्वजनों, परिजनों और धन को अपना रक्षक मानता है और उनके लिए विविध पाप करता है। परन्तु उसकी यह मान्यता उसका भ्रम है। जब कर्मों का प्रकोप प्रकट होता है, तब न तो स्वजन-परिजन उसकी रक्षा कर पाते हैं और न ही धन उसे त्राण दे सकता है। संधि-मुख पर पकड़े गए चोर की तरह उसे भारी प्रताड़नाएं सहन करनी पड़ती हैं। उनसे वह बच नहीं सकता, क्योंकि कृत्-कर्म का फल भोगे बिना छुटकारा असंभव है।
जैन मुनि ने कहा कि जीवन के प्रारंभ में ही धर्माराधना में जुटना चाहिए। जो लोग धर्म को जीवन के अंतिम पक्ष की बात कहते हैं, उन पर भरोसा नहीं करना चाहिए। क्योंकि जीवन असंस्कारित है। उसका एक क्षण का भी भरोसा नहीं है। वृद्धावस्था तक जीवन रहेगा, यह निश्चित नहीं है। इसलिए वृद्धावस्था तक के लिए धर्म को छोड़ना, विज्ञ पुरुषों के लिए उचित नहीं है।कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है, इसलिए साधक दुष्कर्मों से सदैव दूर रहे।
जैन मुनि ने रत्नाकर डकैत से महर्षि बाल्मीकि बनने की कहानी सुनाते हुए बताया की परलोक में स्वजन या धन शरणदायी नहीं होते। आपने जो कर्म करेंगे उसका फल आपको ही भोगना होगा।
प्रवचन के अंत में भारण्ड नामक पक्षी जो अत्यंत बलवान होता है के संबध में बताते हुए गुरुदेव ने कहा कि कहते है ये पक्षी हाथी को भी अपने पंजों में पकड़ कर आकाश में उड़ जाता है। इतना बलवान होते हुए भी वह सदैव सजग रहता है कि उस पर कोई हमला न कर दे। साधक को भी उसी प्रकार की सजगता की
आवश्यकता है कि कोई दोष, कोई पाप, कोई शिथिलता उसके संयम को दूषित न कर दे।
शनिवार की धर्म सभा में बालूगंज जैन श्री संघ के प्रधान निर्मल जैन, उप प्रधान सुरेश जैन,अजीत जैन ,संजय जैन के अतिरिक्त नरेश चप्लावत, विवेक कुमार जैन,रोहित जैन, सचिन जैन,संजय सुराना, अतिंन जैन,राजकुमार बरडिया,नीलम जैन,सुनीता जैन,सुलेखा सुराना,संगीता जैन,अंजली जैन,सुरेंद्र सोनी,नरेंद्र सिंह जैन सहित अनेक धर्मप्रेमी उपस्थित थे।