संवाद , नूरुल इस्लाम
गायब हुए तालाब,कुंभकारों को मिट्टी तलाश करने में हुई कठिनाई
कासगंज।दीपों का त्योहार दिवाली आने से पहले कुंभकारों के चाक घूमने लगते हैं। वह दिन-रात मिट्टी के दीये बनाने में जुट जाते हैं। पिछले दो सालों से कोरोना महामारी काल के कारण बेरोजगार बैठे मिट्टी के बर्तनों का कारोबार करने वाले कुंभकार दीपावली के त्योहार को लेकर खुश नजर आये। इस बार कुंभकार परिवारों को अच्छी बिक्री की उम्मीद जगी।
बीते कुछ सालों में चीन निर्मित दीये और कैंडल ने कुंभकारों के काम पर ब्रेक लगा दिया था, लेकिन चीनी सामान के प्रति शुरू हुए विरोध से एक बार फिर मिट्टी के दीयों को दिवाली पर बढ़ावा मिला। इतना ही नहीं, इससे कुंभकार परिवारों का रोजगार भी चल निकला। कस्बों में प्रजापति समाज द्वारा हर घर में इन दिनों चाक तेजी के साथ घूम रहे हैं। वह मिट्टी के दीये, गोलक, छोटे कलश, मटकी, प्याला, तैयार कर रहे हैं। इस बार उन्हें अच्छी बिक्री की उम्मीद है। एक कुंभकार द्वारा प्रतिदिन औसतन एक हजार दीये बनाए जा रहे हैं। बाजार में 100 रुपये प्रति सौ दीये की कीमत पर इनकी बिक्री की उम्मीद है।
कुंभकार राम शहजादे ने बताया कि दिवाली के त्योहार पर मिट्टी के दीये जलाने की परंपरा सैकड़ो साल पुरानी है।
कुंभकार रूप किशोर ने बताया कि दीपावली आते ही परिवार के लोगों के सहयोग से दीप, दीपक, गुल्लक, घड़ा, मटकी, एवं मिट्टी के खिलोने बनाए जाते है।
लाखन प्रजापति ने बताया कि ताल तलैया समाप्त होने से चिकनी मिट्टी नही मिलती है। जिससे पुश्तैनी कार्य को जिंदा रखना मुश्किल हो रहा है। दीपक और बर्तन बनाने के लिए जिस चिकनी मिट्टी की आवश्यकता पड़ती है । वह हर जगह नही मिलती है। स्वच्छ चिकनी मिट्टी नही मिलने के कारण 80 फीसदी कुंभकारों ने मिट्टी के बर्तन एवं दीपक बनाने का कार्य पूर्ण रूप से बंद कर दिया है।
कोमल प्रजापति ने बताया कि मिट्टी की वस्तुएं बनाने के लिए तालाब की चिकनी मिट्टी की आवश्यकता होती है। प्लास्टिक एवं कागज के बने डिस्पोजल का प्रचलन बढ़ जाने से कुंभकारों का 80 फीसदी तक रोजगार छिन गया है।