राजनीति

संघ से जुड़े संगठनों की प्रॉक्सी याचिकाएं स्वीकार कर डर और अनिश्चितता का माहौल बनाया जा रहा है- शाहनवाज़ आलम

अल्पसंख्यक आयोग को असंवैधनिक घोषित करने की मांग वाली याचिका का स्वीकार किया जाना अघोषित तौर पर संविधान समीक्षा की कोशिश है

संगारेड्डी, तेलंगाना, सुप्रीम कोर्ट द्वारा अल्पसंख्यक विरोधी एजेंडा वाली याचिका जिसमें राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ऐक्ट (1992) और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गयी थी, को स्वीकार कर लिया जाना अल्पसंख्यक समुदायों को मिले संवैधानिक अधिकारों और सुरक्षा को छीनने की राजनीतिक कोशिश है. न्यायपालिका का एक हिस्सा आरएसएस से जुड़े लोगों द्वारा दायर प्रॉक्सी याचिकाएं स्वीकार कर सरकार के एजेंडा को कानूनी आवरण पहनाने की कोशिश कर रहा है. यह एक तरह से बिना घोषणा के संविधान समीक्षा करने जैसा है. ये बातें उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के प्रदेश चेयरमैन शाहनवाज़ आलम ने स्पीक अप कार्यक्रम की 70 कड़ी में कहीं.

शाहनवाज़ आलम ने कहा कि पूजा स्थल अधिनियम 1991 को खत्म करने और संविधान की प्रस्तावना में से समाजवाद और सेकुलर शब्द हटाने की मांग वाली याचिकाओं के स्वीकार कर लिए जाने की ही अगली कड़ी में इस क़दम को भी देखा जाना चाहिए. आम लोगों में ऐसी धारणा बनती जा रही है कि न्यायपालिका का एक हिस्सा आरएसएस के एजेंडा को थोपने की कोशिश कर रहा है. सरकार की कोशिश है कि अल्पसंख्यकों में यह संदेश चला जाए कि न्यायपालिका भी इनके हितों के खिलाफ़ है और वो न्यायपालिका से भी निराश हो जाएं. वे न्यायपालिका तक पहुँच कर उसे संविधान के कस्टोडियन होने की ज़िम्मेदारी याद न दिलाएँ.

शाहनवाज़ आलम ने कहा कि आरएसएस की विचारधारा से जुड़े एनजीओ विनियोग परिवार ट्रस्ट द्वारा दायर याचिका में दिए गए दोनों तर्क, पहला- ‘ राज्य का यह कर्तव्य नही है कि वह अल्पसंख्यक समुदायों की किसी भाषा, लिपि, या संस्कृति को प्रोत्साहित करे’ संविधान के खिलाफ़ है. उन्होंने कहा कि यद्दपि हमारा संविधान अल्पसंख्यक को परिभाषित नहीं करता लेकिन वो अल्पसंख्यकों के अधिकारों को मौलिक अधिकारों के तहत सुरक्षा देता है. मौलिक अधिकारों का पार्ट 3 भारतीय राज्य को निर्देशित करता है कि वह इन अधिकारों को लेकर वचनबद्ध है और वो न्यायपालिका द्वारा इन्हें अमल में ला सकता है.

वहीं आर्टिकल [29 (1)] नागरिकों के हर हिस्से को अपनी ‘अलग’ भाषा, लिपि और संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार देता है.

इसीतरह याचिका का दूसरा तर्क कि ‘अल्पसंख्यक आयोग ऐक्ट 1992 और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन तथा अल्पस्यंखकों खास कर मुसलमानों को दिया जाने वाला फण्ड असंवैधानिक है, भी संविधान की भावना के खिलाफ़ है. उन्होंने कहा कि संविधान का आर्टिकल [30 (1)] सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान बनाने का अधिकार देता है. वहीं आर्टिकल [30 (2)] अल्पस्यंखकों द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों के साथ राज्य से फंड मिलने के मामलों में पक्षपात से सुरक्षा देता है.

शाहनवाज़ आलम ने कहा कि ऐसी याचिकाओं के स्वीकार किये जाने से यह संदेह उत्पन्न होता है कि हमारी न्यायपालिका का एक हिस्सा खुलकर आरएसएस के देश विरोधी एजेंडा के पक्ष में खड़ा हो रहा है. उन्होंने कहा कि कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने जब अल्पसंख्यक आयोग बनाया था तब भी भाजपा ने इसका विरोध किया था. यहाँ तक कि 1995-96 में सत्ता में आई भाजपा और शिवसेना की महाराष्ट्र सरकार ने राज्य अल्पसंख्यक आयोग को ही भंग कर दिया था. वहीं 1998 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में भी अल्पसंख्यक आयोग को खत्म करने की बात कही थी. जिसकी वजह यह है कि दंगों और पक्षपात के शिकार मुसलमान आयोग में शिकायत कर देते हैं और आयोग को उसका संज्ञान लेकर संबंधित अधिकारीयों को कार्यवाई के लिए नोटिस भेजना पड़ता है. भाजपा अल्पसंख्यक आयोग द्वारा अपने दंगाई कार्यकर्ताओं के खिलाफ़ किए जाने वाले इन प्रतीकात्मक कार्यवाइयों को भी खत्म कर देना चाहती है.

उन्होंने कहा कि यह संयोग नहीं हो सकता कि आरएसएस के एजेंडा वाली याचिकाओं पर न्यायपालिका का एक हिस्सा अति सक्रियता दिखा रहा है.