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बुंदेलखंड के मशहूर दीवारी नृत्य पर आधुनिकता का ग्रहण नष्ट हो रही मूल विधा


संवाद/विनोद मिश्रा


बांदा। बुंदेलखंड का मशहूर दीवारी नृत्य आधुनिक शैली की चपेट में आकर अपने मूल नृत्य की विधा से दूर हो गया है। अब इसका स्वरूप “मदारी कला एवं जिमनास्टिक” जैसे प्रदर्शन से गुम इसके “फनकार और कद्रदान विमुख” होते जा रहें हैं।
इस लोक कला को अपने “पुराने स्वरूप की दरकार” हैं,जो “वीर रस से ओत -प्रोत” रहती थी।‘दिवारी नृत्य’ बुंदेलखंड की “सांस्कृतिक विरासत” है, जो “दो दशक पूर्व” तक इस क्षेत्र की “लोक परंपरा को एक नया आयाम” देती थी।

‘दिवारी नृत्य’ करने वाले नर्तक फुंदनादार रंग बिरंगे पोशाक पहनते हैं। मुख्य नर्तक मोरपंख की मूठ हाथ मेंलिए रहता है जबकि बाकी पीठ की ओर बंधे रहते हैं। उनके हाथों में लाठी – डंडे होते हैं और कमर में घुंघरू बंधे होते हैं। ‘दिवारी नृत्य’ की टेर बड़ी ही आकर्षक होती थी। इसके गीत दो पंक्तियों के होते हैं। इसके प्रमुख वाद्य यंत्र ढोलक तथा नगड़िया होते हैं और गीतों के गाये जाने के बाद ही यह बजाये जाते हैं। दो दशक पहले नजर दौड़ाई जाए तो ‘दिवारी नृत्य’ केआयोजन में भारी भीड़ उमड़ती थी। दूर-दूर से लोग इस नृत्य का लुत्फ उठाने आते थे।

लाठी नृत्य होता था। एक -दूसरे पर लाठियों से वार औऱ बचाव का अद्भुत प्रदर्शन होता था, पर अब धीरे-धीरे यह लोक कला “आधुनिकता की चकाचौंध” का शिकार हो “सर्कस का करतब” सी बन गई है।इससे “पारंपरिक विधा लुप्त-सी” होती जा रही है।
दिवारी नृत्य के समय गाए जाने वाले गीत भी विलुप्त हैं ! जैसे
वृंदावन बसवौ तजौ, अरे हौन लगी अनरीत, तनक दही के कारनै फिर बैंयां गहत अहीर। सदा भवानी दाहिनै सन्मुख रहें गनेश, पांच देव रक्षा करें ब्रह्म विष्णु महेश।तथा खेल लै लरिका खेल लै, आज के खेले कब पाये है तोरौ कातिक भागौ जाये।


अब आलम यह हैं कि नृत्य के प्रशिक्षण की आड़ में संस्था बन इसके स्वरूप को गांवों से लेकर सांस्कॄतिक विभाग के आयोजनों में इसके “मूल रूप को बिगाड़ा” जा रहा है जो अति चिंतनीय है। दीवारी नृत्य कला की “पुरानी विरासत को बचाने” की जरूरत है! प्रदेश के संस्कृति विभाग को इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा।