दुनिया के तमाम अग्रणी देशों की एक खासियत है कि वे आगे की ओर कदम बढ़ाते हैं, लेकिन अपनी विरासत को पूरी ईमानदारी से बचा कर भी रखते हैं। और विरासत का अर्थ केवल पुराने रीति-रिवाज नहीं होता, बल्कि इसमें कला, संस्कृति, इतिहास को सहेजने-संभालने की बात है। लेकिन भारत इस मामले में एक नयी मिसाल कायम कर रहा है। हम बार-बार गौरवशाली सभ्यता और संस्कृति का दंभ भरते हैं, लेकिन हमारी ऐतिहासिक इमारतें, प्राचीन शहर तबाह होते हैं तो समाज के एक बड़े तबके को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
जबकि सरकार ऐसे गंभीर मसलों को भी राजनीति की तुला पर तौलती दिखती है। अयोध्या में 5 सौ साल पुरानी बाबरी मस्जिद ढहा दी गई, औऱ बहुसंख्यक समाज ने इसमें धर्म की जीत देखी। कई ऐतिहासिक इमारतों पर इसी तरह की जीत की इबारत लिखने की कोशिश की जा रही है। इसी तरह कई प्राचीन तालाब, बावड़ियां, पानी के स्रोत बर्बाद हो गए, लेकिन हम बेपरवाह बने रहे।
देश के बेशकीमती जंगल कटते चले गए, उस वजह से जानवरों के अस्तित्व पर संकट बन आया, लेकिन हम विदेश से चीते मंगवाकर खुश हैं। पहाड़, जंगल, समुद्र, नदियां ये सब समाज के धनाढ्य वर्ग के लिए पिकनिक स्पॉट बन गए और मध्यमवर्ग उनका अनुसरण करते हुए अपनी छुट्टियों में इसी तरह की पिकनिक करने लगा। इन मौज मस्तियों में कोई कमी न आए, पिकनिक करने वालों को सारी सुविधाएं मिलें, इसका ख्याल रखने वाला व्यवसाय भी शुरु हो गया, जिसके लिए तमाम नियमों-कानूनों को ताक पर रखा जाने लगा। इस वक्त जोशीमठ को हम जिस तरह खत्म होते देख रहे हैं, वह इसी पिकनिक और विकास की क्रोनोलॉजी का एक पड़ाव है।
प्रधानमंत्री मोदी विदेशी निवेशकों को भारत में संभावनाएं दिखाते हैं। लेकिन दुनिया को यह भी दिख रहा है कि कैसे एक सुंदर, ऐतिहासिक शहर इस देश में खत्म हो रहा है, यहां के बाशिंदे अपने भविष्य को लेकर परेशान हैं औऱ सरकार अभी मुआवजे की राशि तय करने में लगी हुई है कि किसी को उसके घर से उजाड़ने की कीमत क्या हो सकती है।
जोशीमठ में इमारतों और मकानों में दरारों के बाद अब वहां से लोगों को कैसे निकाला जाए औऱ कैसे असुरक्षित भवनों को गिराया जाए, इस पर अब सरकार बैठकें कर रही है। वैज्ञानिकों की एक टीम 13 जनवरी को जोशीमठ पहुंच रही है, जो यह पता लगाएगी कि जोशीमठ क्यों धंस रहा है। इस बीच जोशीमठ में मौसम बदल गया है। वहां बारिश और बर्फ ने लोगों की तकलीफ और बढ़ाने का काम किया है।
जोशीमठ के हालात पर एक उच्चस्तरीय बैठक देश के गृहमंत्री अमित शाह ने बुलाई और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से कहा कि विस्थापितों की मदद में कोई कमी नहीं होने पाए। मुख्यमंत्री ने भी प्रभावित परिवारों को भरोसा दिया है कि सरकार के राहत पैकेज पर लोग भरोसा रखें। किसी के साथ नाइंसाफी नहीं होगी। मुख्यमंत्री धामी ने हर विस्थापित परिवार को डेढ़ लाख रुपये की अंतरिम सहायता देने की घोषणा की है और कहा है कि मुआवजा बाजार दर पर मिलेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र और राज्य सरकारें जोशीमठ में लोगों को राहत पहुंचाने में जुट गई हैं। अच्छी बात है कि वे अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं। लेकिन सवाल अब भी वही है कि एक अच्छे-खासे सांस लेते शहर का गला घोंटने का काम किसने किया। जब इस प्राचीन शहर को बर्बाद किया जा रहा था, तब सरकार और प्रशासन इसकी अनदेखी क्यों कर रहे थे।
नियमों के मुताबिक पर्वतीय क्षेत्रों में 12 मीटर यानी चार मंजिल से अधिक ऊंचाई के भवन का निर्माण नहीं किया जा सकता। यह भी तभी संभव है जबकि निर्माण वाले क्षेत्र का अध्ययन हुआ हो। लेकिन जोशीमठ में सात-सात मंजिला इमारतें बनीं। तो सवाल उठना लाजिमी है कि इस तरह के अविचारित निर्माण का जिम्मेदार कौन है। किसी भी शहर का मास्टर प्लान तैयार करने के लिए उसकी भौगोलिक, भूगर्भीय, स्थिति जल स्त्रोत, सड़क, वनस्पतियों आदि सभी का ध्यान रखा जाता है। उस शहर की मिट्टी का कितना भार सह सकती है, इसकी वैज्ञानिक जांच होती है।
10-20 बरसों में जनसंख्या का दबाव कितना बढ़ेगा और शहर उसे किस तरह वहन करेगा, ये सारे अध्ययन भी शहर के मास्टर प्लान में किए जाते हैं। लेकिन जोशीमठ को लेकर ऐसा कोई अध्ययन नहीं किया गया, यह दिख रहा है। केवल जोशीमठ ही नहीं, देश के कई शहरों का यही हाल है। मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, गुरुग्राम, बंगलुरु ऐसे तमाम बड़े शहर अब जिस अव्यवस्था का शिकार हैं, वो मास्टर प्लान की अनदेखी के कारण ही है।
जोशीमठ में हालात गंभीर इसलिए हैं, क्योंकि यहां शहर के खत्म होने का ही खतरा पैदा हो गया है। इसमें भी नियमों की अवहेलना ही बड़ा कारण है। केंद्र व राज्य के नियमों के हिसाब से जो भी इलाका भू-स्खलन प्रभावित हो, वहां निर्माण करने पर रोक है। 1976 में मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट में इस क्षेत्र को भूस्खलन से प्रभावित करार दिया गया था। नियम यह भी है कि 30 डिग्री से अधिक ढलान वाली जगह पर कोई निर्माण नहीं किया जा सकता। जोशीमठ में इस नियम को भी तोड़ा गया। बड़ी-बड़ी इमारतें बनती रहीं और शहर पर खतरा बढ़ता रहा। अब पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा है, तो सरकार मुआवजे का हिसाब बता रही है।
सरकार के लिए बाजार में चल रहे दाम के मुताबिक किसी के घर की कीमत लगाना आसान होगा। लेकिन घर क्या केवल ईंट-पत्थर का निर्माण होते हैं। पूरी जिंदगी जिन लोगों ने अपना आशियाना खड़ा करने में लगा दी, उन्हें डेढ़ लाख रुपयों की तात्कालिक सहायता देकर सरकार हटाने की बात कर रही है। जबकि सरकार को इसमें अतिरिक्त संवेदनशीलता दिखलाने की जरूरत है। एक हफ्ते होने आए, लेकिन सरकार अब तक लोगों के सामने कोई ठोस समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकी। जिन लोगों को हटाया जाएगा, उनके लिए क्या वैकल्पिक व्यवस्था रहेगी।
उन्हें मुआवजे की राशि कितनी, कब और किस तरह मिलेगी। क्या अपने घर में आत्मसम्मान के साथ रह रहे लोग शरणार्थियों की तरह रहेंगे या उन्हें दूसरी जगह भी पूरे सम्मान के साथ जीने का मौका मिलेगा। जिनके व्यवसायों प्रभावित हुए हैं, उनकी आजीविका की क्या व्यवस्था होगी। ऐसे कई सवाल इस वक्त जोशीमठ त्रासदी से निकले हैं, जिनके जवाब जल्द मिलने चाहिए।