आज मौलाना आज़ाद की पुण्यतिथि है. 1958 में आज के ही दिन उनकी देश के प्रथम शिक्षा मन्त्री रहते मृत्यु हुई थी.
सोशल मीडिया पर या सेकुलर राष्ट्रवादी नैरेटिव में आपको मौलाना आज़ाद की छवि एक इस्लामिक स्कॉलर की ज़्यादा दिखेगी. कुछ वैसे ही जैसे गांधी एक राजनेता के बजाए एक संत की तरह दिखते हैं. इस नैरेटिव में ज़्यादा ज़ोर उन्हें जिन्ना के मुकाबले एक राष्ट्रवादी नेता और ऐसे इस्लामिक विद्वान के तौर पर दिखाने की रहती है जो पाकिस्तान की मांग को इस्लाम की रौशनी में खारिज़ करता है. यह मुल्यांकन बिल्कुल सही भी है.
लेकिन ऐसा लगता है कि यह सब करते हुए एक खास पहलू को छुपाने या डायल्यूट करने की सचेत कोशिश रहती है और वो है मौलाना का अहमियत भरा सियासी क़द.
जैसे, 1940 से 1946 तक वो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे. यह न सिर्फ़ दूसरे विश्वयुद्ध के कारण पूरी दुनिया में उथल-पुथल का दौर था बल्कि ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन से लेकर कैबिनेट मिशन का दौर भी था. यह दौर अंग्रेज़ों और भारत के बीच के तमाम समझौतों का भी था. यानी अंग्रेज़ों के जाने के बाद भविष्य के भारत का खाका खींचे जाने वाली हर बैठक में आज़ाद ने भारत का नेतृत्व किया. यह भी याद रखा जाए कि कुल 10 साल वो जेलों में रहे.
अब सोचिये कि इतनी अहम सियासी ज़िंदगी जीने वाले को एक साहित्यिक स्कॉलर की इमेज तक सीमित कर देना क्या सिर्फ़ अज्ञानतावश किया जा सकता है? नहीं. दरअसल यह एक विशुद्ध राजनीतिक प्रोजेक्ट है. बटवारे को हो जाने देने के लिए भी और उसका ज़िम्मा मुसलमानों पर डालने के लिए भी.
इसे ऐसे समझें, जिन्ना कभी भी मौलाना आज़ाद को पसंद नहीं करते थे. वो उन्हें कांग्रेस का शो बॉय कहकर उनकी हैसियत को नकारने की कोशिश करते थे. सबसे दिलचस्प बात की जिन्ना कभी भी मीटिंगों में मौलाना से हाथ नहीं मिलाते थे.
ऐसा वो इसलिए करते थे कि उन्हें डर था कि मुसलमान कहीं अहमियत देने से मौलाना को नेता न मानते रहें.
कांग्रेस ने भी जिन्ना के मुकाबले मौलाना को पृष्ठभूमि में ही रखना शुरू किया. जिससे जिन्ना का मुसलमानों का एक मात्र नेता बनना आसान होता गया. 1946 में मौलाना आज़ाद के कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देने के बाद से तो जिन्ना मुसलमानों के एक मात्र नेता बन ही गए.
अपने मित्र जवाहर लाल नेहरू को समर्पित अपनी जीवनी ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ के प्रकाशन के समय मौलाना ने इच्छा ज़ाहिर की थी कि उनकी मृत्यु के 30 साल पूरे होने पर कुछ पन्ने इसमें जोड़ दिये जाएं. ओरिएंट लौंगमैन द्वारा 1989 में पुनः प्रकाशित संस्करण में जोड़े गए क़रीब 30 पेज के तथ्य उपरोक्त बातों को और ज़्यादा साफ करते हैं.
वहीं राजमोहन गांधी की किताब ‘Understsnding The Mislim Mind’ में मौलाना आज़ाद पर केंद्रित अध्याय उनके सुझावों को नज़र अंदाज़ करते हुए जिन्ना को खुली छूट देने के कई प्रसंग आपको मिल जाएंगे. (मुस्लिम मन का आईना नाम से हिंदी में छपी इस किताब को तो हर राजनीतिक व्यक्ति को पढ़नी चाहिए)
तो अब अविभाजित भारत के अंतिम दिनों में सिर्फ़ जिन्ना ही एक मात्र मुस्लिम नेता रह गए थे. बंगाल के मूलतः किसान नेता फ़ज़ल उल हक़ समेत सभी गैर मुस्लिम लीग के नेता भी उस आंधी में लीग में चले गए थे.
गांधी बटवारा रोकने के लिए जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दे चुके थे. लेकिन जिन्ना नहीं माने. कांग्रेस भी उन्हें उनके मुस्लिम एजेंडे के कारण प्रधानमंत्री नहीं स्वीकार करती. यानी यह प्रस्ताव ही बेमानी था.
ऐसे में इस सवाल पर विचार करना रोचक होगा कि अगर मौलाना आज़ाद को प्रधानमंत्री के बतौर प्रोजेक्ट किया जाता तो क्या होता? मेरा मानना है कि तब मुसलमानों को लेकर एक अलग देश बनाने का सवाल धराशायी हो जाता. जिन्ना और उनके पीछे खड़ी अलग देश की मांग वाली मुस्लिम भीड़ के पास बटवारे का कोई तर्क नहीं बचता. कांग्रेस के पीछे खड़ी आम हिंदू आबादी को मौलाना से कोई दिक़्क़त नहीं होती.
इस नज़रिए से सोचना तब ज़रूरी हो जाता है जब कुछ लोग यह सवाल रखते हों कि अगर नेहरू के बजाए पटेल प्रधान मंत्री होते तो क्या होता? इतिहास में ‘यूँ होता तो क्या होता’ का कोई मतलब नहीं होता. लेकिन फिर भी मौलाना आज़ाद और अंबेडकर पर हमें ज़रूर सोचना चाहिए कि ये लोग प्रधानमंत्री होते तो क्या होता. आप जैसे ही यह बोलना शुरू कर देंगे नेहरू के प्रधान मंत्री बनने पर सवाल उठाने वाले चुप हो जाएंगे.
और हाँ, हमें अपने राष्ट्रनिर्माताओं का मूल्यांकन उनके द्वारा बनायी गयी चीज़ों से ज़्यादा उनके विचारों से किया जाना इस वक़्त सबसे ज़रूरी है. नेहरू को बहुत से लोग इसलिए महान बता रहे हैं कि उन्होंने डैम और फैक्ट्रीयां बनायीं. यह संघी ट्रैप में फंसने जैसा है. संघ को नेहरू के फैक्ट्रीयों से दिक़्क़त नहीं है, उसे उनके सेकुलर विचार से दिक़्क़त है. उसी तरह आज़ाद भी इसलिए महान नहीं थे कि उन्होंने यूजीसी का गठन किया बल्कि इसलिए महान थे कि वो भी नेहरू की तरह भारत के विचार में यकीन रखते थे.
बहरहाल, आज़ाद की पुण्यतिथि पर आपको 1946 का उनका यह इंटरव्यू ज़रूर पढ़ना चाहिए जहाँ उन्होंने कह दिया था कि पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा अलग हो जाएगा और पाकिस्तान सैनिक शासन के अधीन रहेगा. याद रहे यह वे पाकिस्तान बनने से एक साल पहले कह रहे हैं.
शाहनवाज़ आलम
(लेखक अल्पसंख्यक कांग्रेस उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष हैं)