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हज़रत हसन बिन अली रज़ि०, अज़ीम साहबी और ख़लीफ़ा पैदाइश का दिन

हज़रत हसन बिन अली रज़ी० रसूलुल्लाह ﷺ के नवासे और रसूलु्ल्लाह ﷺ की बेटी हज़रत फातिमा के बेटे और मुसलमानों के चौथे खलीफा अली इब्ने अबी तालिब के बेटे थे। आपकी विलादत रमज़ान की 15वीं तारीख़ को मदीना 3 हिजरी हुई। हमने उन हुकमरानों की बात की जिन्होंने इक़्तेदार तक पहुँचने के लिए सारे तरीक़े इस्तेमाल किये, लेकिन हज़रत हसन रज़ि० का ज़िक्र जिन्होंने मुसलमानों में खूंरेज़ी रोकने के लिए सबकुछ छोड़ दिया। उन्होंने मफ़ाद के ऊपर अमन और इत्तिहाद को तरजीह दी। कुछ अहम निकात जो आपकी ज़िंदगी का ख़ुलासा करते हैं:

इब्तेदाई ज़िंदगी 

हज़रत हसन का नाम उनके वालिद अली इब्ने अबी तालिब रज़ि० ने रखा था और रसूले अकरम मुहम्मद ﷺ के साथ उनकी नुमायाँ मुशाहबत के लिए आप जाने जाते थे। आपने अपने वालिद और नाना के रहनुमाई में परवरिश पाई।

फ़ौजी मुहिम  

23 साल की उम्र में, हज़रत हसन ने मग़रिब (उत्तरी अफ्रीका) की इस्लामी फ़तह में हिस्सा लिया। तीन साल बाद, 26 साल की उम्र में, आपने फारस की इस्लामी फ़तह में हिस्सा लिया, जहाँ उन्होंने इस्फ़हान और जोर्जान की फ़तह में अहम किरदार अदा किया।

हज़रत उस्मान रज़ि० का दिफ़ा 

35 हि० (656 ई०) में हज़रत उस्मान के घर की घेराबंदी के दौरान, हज़रत हसन उन चुनिंदा लोगों में से एक थे, जिन्होंने बाग़ियों से हज़रत उस्मान रज़ि० का दिफ़ा किया था। इब्ने ख़लदून ज़िक्र करते हैं कि जब हज़रत उस्मान ने मुहाफ़िज़ीन को जाने का हुक्म दिया तो सब पीछे हट गए सिवाय हसन बिन अली, मुहम्मद बिन तलहा बिन उबेदु्ल्लाह, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रज़ि० के। इस वाकिए के दौरान हज़रत हसन रज़ि० अपनी बहादुरी और शुजाअत के लिए जाने गए।

हज़रत अली रज़ि० की मुख़ालिफ़त

  हज़रत उस्मान रज़ि० के इंतकाल के बाद, अली रज़ि० मुसलमानों के चौथे खलीफा बन गए। हज़रत हसन ने हज़रत अली के दारुल ख़िलाफ़ा को मदीना से कुफा, इराक ले जाने के फैसले की मुख़ालिफ़त की, और आप हज़रत मुआविया की फ़ौज के खिलाफ लड़ने के हक़ में नहीं थे।हज़रत हसन का मानना था कि अमन और इत्तेहाद ख़िलाफ़त से ज़्यादा ज़रूरी है।

सुलाहे हसन 

जब अंबार के मुक़ाम पर हज़रत माविया रज़ि० और हज़रत हसन की फ़ौज मिली तो आप को मालूम था कि दोनों लश्कर में कोई एक लश्कर तब तक फ़तह नहीं पा सकता जब कि दूसरा तबाह ना हो जाए, इसलिए उन्होंने क़ुर्बानी देने का फ़ैसला किया। अगरचे उन की फ़ौज में चालीस हज़ार से ज़्यादा जंगजू थे जिन्होंने मौत पर बैत की थी, लेकिन हज़रत हसन ने क़ुर्बानी की एक अज़ीम मिसाल पेश की और अपनी ज़ात पर क़ौम के मुफ़ाद को तरजीह दी।हज़रत हसन रज़ि० ने हज़रत माविया के साथ सुलह मुआहिदा किया जिसे सुलाहे हसन कहते हैं। इस मुआहिदे की वजह से मुसलमानों में मौजूद ख़ाना जंगी ख़त्म हुई और रसूलुल्लाह ﷺ की वो पैशेनगोई पूरी हुई जिसमें उन्होंने फ़रमाया मेरा नवासा मुसलमानों के दो गिरोहों के दरमियान सुलाह कराएगा

आपने अपने एक बेटे का नाम अबुबक्र रखा जो हज़रत उस्मान बिन अफ़्फ़ान रज़ि० के दौरे ख़िलाफ़त में पैदा हुए, आपका ये अम्ल इस बात के वाज़ेअ दलील है जो बुग़्ज़े अबुबक्र की जड़ें काट देती है।

आपकी वफ़ात 6 रबी-उल-अव्वल 50 हि० के हुई, तब आपकी उम्र 47 साल थी।