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कहीं ऐसा न हो कि हमारा नाम सिर्फ़ ‘रमज़ान के नमाज़ी’ होकर रह जाए – हाजी मुहम्मद इक़बाल

आगरा। नहर वाली मस्जिद के इमाम जुमा हाजी मुहम्मद इक़बाल ने ख़ुत्बा जुमा में कहा कि आज के जुमा के ख़ुत्बे में बात करेंगे उन मस्जिदों की जो अब नमाज़ियों से ख़ाली हो चुकी हैं। अब जुमा की नमाज़ में भी वो जोश व ख़रोश नहीं रहा। इसकी क्या वजह है ? इस पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। इससे एक बात तो ये पता चलती है कि अल्लाह तअ़ाला जब चाहे दिलों को बदल सकता है ये उसकी क़ुदरत का एक नमूना देखने को मिलता है, लेकिन इसमें हमारा कितना रोल है ? असल सवाल तो ये है कि हमने अपने आप को बदलने की कितनी कोशिश की ? क्या रमज़ान के बाद अब नमाज़ की वैल्यू कम हो गयी है ? अल्लाह के बन्दों! रमज़ान साल में एक मरतबा आता है, उसमें भी रोज़े की छूट मिलती है, अगर आप बीमार हैं या सफ़र में हैं तो रोज़ा छोड़ सकते हैं उसको बाद में मुकम्मल कर लें, लेकिन नमाज़ न तो बीमारी और न सफ़र में छोड़ने का हुक्म है, तो वैल्यू किसकी ज़्यादा हुई ? जवाब है नमाज़ की। तो फिर नमाज़ से ये लापरवाही क्यों ? क़ब्र में सबसे पहले नमाज़ के बारे में ही पूछा जाएगा। नमाज़ दिन में पाँच मरतबा फ़र्ज़ है। इसके बिना गुज़ारा नहीं है। हर हालत में दिन में पाँच नमाज़ें पढ़नी ही हैं, और हम इस फ़र्ज़ से सबसे ज़्यादा लापरवाही करते हैं। जिस फ़िक्र के साथ हम रमज़ान में पढ़ रहे थे, उसी फ़िक्र के साथ अब भी पढ़नी है। कहीं ऐसा न हो कि हमारा नाम सिर्फ़ ‘रमज़ान के नमाज़ी’ में ही रह जाए। आप कितने ही बीमार हैं, उस वक़्त भी नमाज़ छोड़ने की इजाज़त नहीं है। जंग की हालत में भी माफ़ नहीं है। इतना इम्पाॅर्टेन्ट फ़र्ज़ और हम इतने लापरवाह ? इस हिसाब से तो हम बहुत ही बड़े मुजरिम हैं। और मुजरिम किसके ? इस कायनात के ख़ालिक़ के, क्या कहीं बच के जा सकते हैं ? जब ऑप्शन है ही नहीं, तो अक़्ल ये कहती है कि ख़ामोशी से अपने आप को उस ख़ालिक़ के हवाले कर दें जो हमारा भी ख़ालिक़ है। इसीलिए नमाज़ को किसी भी हालत में न छोड़ें नहीं तो जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। अल्लाह से दुआ है कि अल्लाह हम सबको मरते दम तक नमाज़ी रखे। आमीन।