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The Three Khans And The Emergence Of New India पुस्तक समीक्षा

1985 में अमरीकी कांग्रेस में जब राजीव गांधी ने कहा कि ‘मैं युवा हूँ और मेरा भी एक सपना है’ तब वो नये भारत के इरादों को सामने रख रहे थे। कठोर आर्थिक पाबंदियों को खत्म करने और कंप्यूटर कल्चर को शुरुआत देने वाले राजीव गांधी की अपनी ज़िंदगी भी ऊपर की तरफ उड़ान भरती युवा भारत की आकांक्षाओं की परछाई थी। वो प्रधानमंत्री जो अपने पूर्ववर्तीयों से अलग एक पेशेवर पायलट थे. जो सार्वजनिक जगहों पर अपनी पत्नी का हाथ पकड़ लेते थे। जिन्होंने युवाओं को 18 साल पर वोट देने का अधिकार देकर उनमें विश्वास जताया था। जो सामूहिक ‘रन फॉर कंट्री’ का आयोजन करके सबको देश की रफ्तार में हिस्सेदार बनाना चाहते थे। ये वही दौर भी था जब 1988 में पुलिस अधिकारी रूपम देओल बजाज ने ताक़तवर पुलिस अधिकारी केपीएस गिल के खिलाफ़ छेड़खानी का आरोप लगाया था। जो अपने आप में ऐसी पहली घटना थी। विज्ञान के सबसे लोकप्रिय उत्पाद टीवी पर आस्था का रंग छढ रहा था। महाभारत हमारे रविवार को पहले से ज़्यादा अहम बना रहा था। बॉलीवुड से उस साल दो हिंसा प्रधान फिल्में आईं। ‘तेज़ाब’ और ‘खून भरी मांग’। लेकिन बड़ी खामोशी से जो फिल्म सबसे ज़्यादा हिट हुई वो आमिर खान की ‘क़यामत से क़यामत तक’ थी।
तब इंडिया टुडे ने कहा था कि यह वो लड़का है जिसे आप अपनी माँ से मिलवाने अपने घर ले जाना चाहेंगी। उसी वक़्त दिल्ली में गालों में बड़े डिंपल वाला एक 23 वर्षीय लड़का दूरदर्शन के लिए ‘फौजी’ बन रहा था। तो मुंबई में बनियान और जींस पहना एक उसी उम्र का लड़का माइकल जैक्सन और मडोना की तस्वीरों वाले कमरे में डांस करता बड़े पर्दे पर दिखा।
फिल्म थी फारूक शेख और रेखा की ‘बीवी हो तो ऐसी’।
‘शहंशाह’ और ‘गंगा जमुना सरस्वती’ की विफलता से 1988 में अमिताभ के पतन की घोषणा हो चुकी थी।
आप कह सकते हैं कि भूमंडलीकरण की शुरुआत से ठीक एक साल पहले हिंदी सिनेमा को नये नायक मिल गए थे। तीनों नेहरू के समाजवादी अवधारणाओं के दौर की पैदाइश थे और भविष्य के भारत का प्रतिरूप भी। वरिष्ठ फिल्म पत्रकार कावेरी बामज़यी की The Three Khans And The Emergence Of New India इसी खानमय भारत और भारतमय खानों की कहानी है।
किताब इसकी पड़ताल करती है कि तीनों खानों ने भारतीय मर्दों के पौरुष की कल्पना को कैसे प्रभावित किया, प्रेम, परिवार, महिलाओं के प्रति नज़रिए को कैसे तराशा और इस सबके साथ बढ़ती मुस्लिम विरोधी लहर में अपनी धार्मिक पहचान को कैसे सामने रखा।
कावेरी आमिर खान को मध्य वर्गीय परिवार का हीरो मानती हैं जिसकी छवि ‘दिल चाहता है’ के बाद एक ऐसे प्रयोगधर्मी की बनी जो हर साल अपनी इमेज बदल लेता है। चाहे वो ‘लगान’ हो, ‘थ्री इडियट’ हो, ‘तारे ज़मीन पर’ हो या ‘दंगल’। लेकिन इन सब इमेजों में वो एक शांत आदमी ही रहता है। वहीं शाहरुख संघर्ष करते आगे बढ़ते बाहर से आए एक एनआरआई हीरो की पहचान रखते हैं। उनकी बाहरी पृष्ठभूमि इस धारणा को मजबूत करती है। सबसे अहम कि उन्होंने एनआरआई को नई पहचान दी जो मनोज कुमार की उस ‘पश्चिम और पूरब’ से अलग थी जिसमें पश्चिम को नैतिक तौर पर दूषित और भारतियों को बिगाड़ देने वाला दिखाया जाता था। जिसमें अतार्किक और हवाई गौरव था कि ज़ीरो भी हमने बनाया और हमारे हर आदमी और औरत में राम और सीता बसते हैं। शाहरुख के एनआरआई का पश्चिमी कल्चर से कोई टकराव नहीं है। यह एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक बदलाव था। इस बदलाव के बिना आप भूमंडलीकृत दुनिया में भारत की कल्पना नहीं कर सकते। लेकिन यह वो राहुल/राज भी है जो महिलाओं के प्रति पारंपरिक भारतीय नज़रिए का हिमायती है। जिस पर एक सख़्त बाप भी भरोसा करके अपनी ‘सिमरन’ को उसके साथ जाने और जीने के लिए छोड़ सकता है। दरअसल, शाहरुख पूरब और पश्चिम के समिश्रण के प्रतीक थे जिसमे उदारीकरण और सामाजिक रूढ़िवाद के बीच भ्रमित देश ने अपना नायक ढूंढ लिया। (पेज 58)
इस खास संदर्भ पर श्रयाना भट्टाचार्या की शानदार किताब Desperately Seeking Shah Rukh: India’s Lonely Young Women and the Search for Intimacy and Independence पढ़नी चाहिए। लेकिन इस पर चर्चा फिर कभी.
वहीं सलमान खान को कावेरी वर्किंग क्लास का हीरो मानती हैं। जो समाज के निचले तबके के गुस्से को पुलिस या गुंडा बनकर पर्दे पर उतारता है। बाकी दोनों खानों से जिसकी व्यक्तिगत ज़िंदगी ज़्यादा खुली किताब है। ये पुराने ऐंग्री यंगमैन का नया अवतार है। जिसका शिजरा सलीम-जावेद के ‘विजय’ से मिलता है। 1997 में आई ‘जुड़वा’ से जिसने ईद को अपने नाम करना शुरू किया। किताब में एक चूक हो गयी है कि सलमान ने सिर्फ़ एक बार ‘सुल्तान’ में मुस्लिम किरदार निभाया (पेज 19) जबकि 1991 में आई सनम बेवफ़ा में वो मुस्लिम किरदार में थे।
*खानों का दानविकरण*
2000 में आई ‘कहो ना प्यार है’ से ऋतिक रोशन नई सनसनी बन के उभरे। संघ के मुखपत्र पांचजन्य ने उनमें खानों को चैलेंज करने वाला हिंदू हीरो ढूंढ निकाला। गौरतलब है कि तब अक्षय कुमार या अजय देवगन खुल के संघ के एजेंडे के प्रचारक नहीं बने थे और बॉलीवुड मुद्दों पर पोज़िशन भी लेता था। सुनील दत्त और महेश भट्ट जिसकी अगुवाई करते थे। एक रात तो उनके नेतृत्व में 90 के शुरुआत में इन कलाकारों ने सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ़ धरना भी दिया था। ये तब की बात है जब फिल्में जनता हिट कराती थी। कॉर्पोरेट के आपकी वैचारिक पोज़िशन से नाराज़ हो जाने का खतरा नहीं था।
संघ ने कोका कोला और पेप्सी जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर खानों को प्रचार के लिए साईन करने का आरोप लगाकर मुद्दा बनाना चाहा। उसने यह भी आरोप लगाया की ऋतिक रोशन की कप्तानी में फिल्म स्टार्स और क्रिकेटरों के बीच खेले गए सूखा पीड़ितों के सहायतार्थ मैच में नहीं खेलना उनकी देशभक्ति को संदिग्ध बनाता है। पाँचजन्य ने उनकी फिल्मों के हिट होने के पीछे अंडर वर्ल्ड का हाथ होने के भी बेसिर-पैर के आरोप लगाने शुरू किये। तत्कालीन भाजपा महासचिव, संघ प्रचारक और मौजूदा पीएम मोदी जी ने तब सवाल उठने पर कहा था कि का पाँचजन्य अखबार नहीं है? क्या उसके रिपोर्टर रिपोर्टर नहीं हैं? अगर कोई दूसरा पेपर कुछ लिखता है तो कोई सवाल नहीं उठाता। (पेज 85)
यह अटल बिहारी वाजपेयी का दौर था। टीवी पर बढ़ते राजनीतिक हित वाले कॉर्पोरेट नियंत्रण ने समाज को अपने एजेंडे के हिसाब से दिशा देना तय कर लिया था। ज़ी टीवी पर पहले से चल रहे अधिकतर महिला प्रधान सीरियल्स में महिलाएं सशक्त और आर्थिक तौर पर आज़ाद दिख रही थीं। तारा, स्वाभिमान, शांति, राहत और उम्मीद औरतों की नई छवि गढ़ रही थीं। ‘तारा’ की प्रोड्यूसर विन्ता नन्दा कहती हैं कि चानक्या बनाने वाले चंद्र प्रकाश दिवेदी तब ज़ी के सीईओ बने और उनके सारे कार्यक्रमों को उनसे यह कहते हुए बन्द कर दिया कि उनकी जैसी औरतों को देश से निकाल देना चाहिए।
तभी कुछ और भी घटित हुआ। स्टार टीवी ने एकता कपूर की बाला जी टेलीफिल्मस से साझेदारी की और सास बहु वाले अंतहीन शोज़ शुरू हुए जिसमें महिलाओं को उनके घरों में क़ैद कर दिया गया। (पेज 89).
स्टारडस्ट ने जनवरी 2000 में आमिर खान द्वारा अमेरिका में एक पाकिस्तानी रेडियो को इंटरव्यू देने को उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाने वाला मुद्दा बनाना चाहा। फिल्म निर्देशक राहुल ढोलकिया याद करते हैं कि जब वे 1999 में स्टारडस्ट के प्रकाशक हीरा नारी का इंटरव्यू करने आए थे तब उनसे कहा गया था कि इंडस्ट्री खान लोगों का विकल्प ढूंढ रही है। इंडस्ट्री अब नए हिंदू हीरो ऋतिक रोशन को उछाल रही है। संघ के दुर्भाग्य से ऋतिक तब खालिद मोहम्मद की फ़िज़ा और विधु विनोद चोपड़ा की मिशन कश्मीर बना रहे थे. दोनों में उनके किरदार मुस्लिम थे। (पेज 91)
संजय खान की बेटी से ऋतिक की शादी ने भी हिंदुत्ववादी खेमे को निराश ही किया.
इस किताब को पढ़ना बॉलीवुड के मौजूदा सांप्रदायिक विभाजन की शाखाओं को समझने के लिए ज़रूरी है। ये प्रवित्तियाँ पहले भी थीं लेकिन इन प्रवित्तियाँ के कमल के खिलने लायक पर्याप्त कीचड़ तब नहीं था। अब है और वास्तव में वो एक खतरा है। क्योंकि बॉलीवुड हमारे लिए सिर्फ़ एक इंडस्ट्री नहीं है, वो उससे बहुत बहुत कुछ ज़्यादा है। मैं ऐसे एक मध्य वर्गीय हिंदुत्वादी परिवार को जानता हूँ जिसके घर का युवा ड्राइवर बचपन से संघ की शाखा में जाता है और मुस्लिम हीरो लोगों की फिल्में नहीं देखता। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि जो इन खानों की फिल्में देखते हों वो हिंदुत्व की सांप्रदायिक ज़हर से बचे हों। ‘फ़िराक’ का वो दृश्य याद करिए जब मुस्लिम किरदार वाली शहाना गोस्वामी अपनी हिंदू सहेली के साथ एक मध्य वर्गीय गुजराती हिंदू परिवार में होने वाली शादी में मेहदी लगाने इस शर्त पर जाती है कि वो अपना मुस्लिम नाम नहीं बताएगी। उस संभ्रांत परिवार की एक युवती शाहरुख़ खान की फैन है और शादी में करने के लिए शाहरुख के डांस पर रिहर्सल कर रही है।
कावेरी बामज़यी ने समय, राजनीति और समाज के बदलावों को इन तीनों खानों के बरअक्स रख कर देखने की कोशिश की है। इसीलिए यह यह अपने समय और राजनीति का भी दस्तावेज बन जाती है। 138 करोड़ लोगों में कौन होगा जो इससे इनकार कर दे कि उसमें इन खानों का थोड़ा सा तत्व नहीं है। चेतन में नहीं तो अवचेतन में तो होगा ही। आदत और अभिव्यक्ति की शैली तक में होगा, भले हमें एहसास न हो।
राहुल गाँधी जी की भारत जोड़ो यात्रा जब हरियाणा पहुंची और केरल के साथियों ने पहली बार सरसो के फूलों वाले खेत देखे तो वो सब भागते हुए गए और सबने शाहरुख खान की स्टाइल में दोनों बाहें उठाते हुए तस्वीरें खिचवाई। इनमें से किसी को भी हिंदी नहीं आती थी।
वेस्टलैंड प्रकाशन से आई इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए.
 शाहनवाज़ आलम