आज देश में दो अलग-अलग जगहों पर सत्तारूढ़ एनडीए के साथी दलों की बैठक है, और उसके खिलाफ विपक्ष में बनने वाले गठबंधन के संभावित भागीदारों की भी। मोदी विरोधी लोग यह तंज कस रहे हैं कि अभी दो दिन पहले तक प्रधानमंत्री खुद को और अपनी पार्टी को काफी बता रहे थे, लेकिन अब आज की तारीख में ही तीन दर्जन से अधिक दलों को इकट्ठा करके यह बैठक करना बताता है कि विपक्षी एकता की संभावनाओं को लेकर हो सकता है कि भाजपा के भीतर एक फिक्र हो। बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि 2024 के चुनाव में भाजपा के पास मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए आक्रामक हिन्दुत्व के अलावा बहुत कुछ नहीं है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में भारत की जो जगह आज दिख रही है, और देश का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) दिख रहा है, उससे आम जनता का बहुत कम लेना-देना है, उसका शेयर मार्केट की ऊंचाई से, और देश के बड़े उद्योगों के मुनाफे से अधिक लेना-देना है। इसलिए ये आंकड़े आम जनता को बहुत सहमत नहीं कर सकेंगे कि उसके अच्छे दिन आ गए हैं। शायद इसीलिए आज विपक्षी दलों की बैठक में 28 दलों की चर्चा है तो उसके मुकाबले भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए ने 38 दलों की एकजुटता दिखाने की कोशिश की है। कुछ खबरें बताती हैं कि एनडीए की बैठक में विपक्षियों से एक दर्जन ज्यादा पार्टियां रहेंगी।
लोकसभा का चुनाव कुछ दूर है, और ऐसे में विपक्ष की एकता इतनी जल्दी और इतनी आसान नहीं हो सकती क्योंकि उसके भागीदारों को बांधकर रखने के लिए सत्ता की तरह का कोई गोंद नहीं है। लेकिन कांग्रेस और आम आदमी पार्टी जैसे परस्पर-नफरती दल भी अगर कुछ मुद्दों पर सहमति के बाद एक साथ बैठने को तैयार हो रहे हैं, तो यह छोटी बात नहीं मानी जानी चाहिए। चाहे आम आदमी पार्टी कुल दो प्रदेशों में सरकार वाली पार्टी क्यों न हो, इस संभावित गठबंधन की अधिकतर पार्टियां तो किसी प्रदेश में सत्ता में नहीं हैं, इसलिए राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पा चुकी आप को भी विपक्षी गठबंधन के लिए महत्वपूर्ण मानना चाहिए। आज अगर दोनों तरफ एक ही किस्म की ये बैठक नहीं हुई रहती, तो शायद इस पर लिखने की वजह न बनती, लेकिन आज यह एक किस्म का शक्ति प्रदर्शन है, और शायद यह 2024 के आम चुनाव के पहले दोनों गठबंधनों का आमने-सामने का एक अघोषित मुकाबला है, इसलिए हम इस पर लिख रहे हैं।
हिन्दुस्तान की राजनीति को अगर देखें, तो कभी-कभी अमरीकी राजनीति से इसकी तुलना करने का दिल करता है क्योंकि वहां दो पार्टियों के बीच सीधे-सीधे आमने-सामने मुकाबला होता है, कोई गठबंधन नहीं होते। दूसरी तरफ अमरीकी राजनीतिक व्यवस्था राष्ट्रपति प्रणाली की है जिसमें सरकार और देश के मुखिया को जनता सीधे चुनती है। भारत का इंतजाम उससे बिल्कुल अलग है। यहां पर लोकसभा में पहुंचे हुए सांसदों का बहुमत प्रधानमंत्री तय करता है, और इसलिए वोटरों के वोट का कोई सीधा मतलब प्रधानमंत्री से नहीं होता। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरीखे, मतदाताओं में लोकप्रिय नेताओं के लिए राष्ट्रपति शासन प्रणाली बेहतर लग सकती है क्योंकि उनके मुकाबले कोई एक नेता अभी नहीं है। लेकिन हिन्दुस्तान अलग-अलग प्रदेशों में, अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों में बंटा हुआ है, और उन प्रदेशों में उन क्षेत्रीय पार्टियों के नेता मोदी सरीखे करिश्माई दिखते नेता के मुकाबले भी अधिक कामयाब हैं। इसलिए जब चुनावों पर क्षेत्रीय दलों का भी असर अपने-अपने इलाकों में होता है, तो फिर महज लोकप्रियता की वजह से मोदी की पार्टी का देश भर में जीतकर आना उतना आसान नहीं रह जाता जितना आसान उनका राष्ट्रपति प्रणाली में खुद जीतकर आना हो सकता था।
आज हिन्दुस्तान में दर्जनों क्षेत्रीय दल हैं, और ये दो बड़े राष्ट्रीय दलों, भाजपा और कांग्रेस के इर्द-गिर्द इकट्ठे होते दिख रहे हैं। खुद क्षेत्रीय दलों के हित में यह है कि वे किसी राष्ट्रीय पार्टी के साथ रहें, ताकि केन्द्र में सरकार बनाने के नाम पर जो चुनाव हो, उसमें जनता उन्हें केन्द्र के किसी गठबंधन का हिस्सेदार भी देखे, और एक मजबूत गठबंधन का हिस्सेदार भी देखे। अगर देश में तीन-चार अलग-अलग गठबंधन मोदी के मुकाबले खड़े रहेंगे, तो वे सारे मोदी के लिए रेड कार्पेट बिछाने सरीखा काम करेंगे। अगर एनडीए के मुकाबले एक गठबंधन मजबूती से सामने रहेगा, तो देश की आर्थिक दिक्कतें, लोगों के असल मुद्दे, उठाए जा सकेंगे। लेकिन अगर विपक्ष छिन्न-भिन्न रहेगा, तो फिर भाजपा और एनडीए का हिन्दुत्व का मुद्दा सबसे बड़ा रहेगा।
दरअसल हिन्दुस्तानी वोटरों को नेताओं की लोकप्रियता, पार्टियों के प्रति वफादारी के बाद ही असल मुद्दों की समझ दी जा सकती है। वोटरों की राजनीतिक चेतना कुछ कमजोर है, और वह सबसे पहले प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के नाम पर किए जाने वाले ओपिनियन पोल के इस झांसे में आ जाती है कि वह किसे प्रधानमंत्री देखना चाहती है। इसके बाद तमाम सर्वे और पोल में उससे पार्टियों के बारे में पूछा जाता है। जिंदगी के असल मुद्दों के बारे में सबसे आखिर में पूछा जाता है, और जितनी मुश्किल लोगों की जिंदगी है, उतना ही मुश्किल उनके लिए कोई जवाब देना भी होता है। नतीजा यह होता है कि मीडिया और राजनीतिक दलों के मिलेजुले और प्रायोजित ऐसे तमाम सर्वे पहले तो व्यक्तिवाद पर टिके होते हैं, उसके बाद वे पार्टियों की बात करते हैं, और मुद्दों की बात आने तक तो बात आई-गई हो चुकी रहती है।
भारत के 2024 के आम चुनावों के लिए आज का दिन बहुत अहमियत का है क्योंकि सत्तारूढ़ गठबंधन और संभावित विपक्षी गठबंधन दोनों ही आज मिल रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए एक अच्छी बात है कि एक मजबूत विपक्ष मौजूद रहे, और सत्ता के गलत फैसलों, उसकी नाकामी को चुनौती देते रहे। देखते हैं इन गठबंधनों का अगले एक बरस में क्या हाल होता है, फिलहाल तो पिछले एक-डेढ़ महीने में विपक्ष की यह दूसरी बड़ी बैठक उसके लोगों का बेहतर तालमेल बता रही है।