हैदराबाद। जिंदा मछली निगलने से होता है दमा ठीक, ये दावा करने वाले हैदराबाद के संत बथिनी हरिनाथ गौड़ का निधन हो गया है। अस्थमा की बीमारी को ठीक करने के लिए वो अस्थमा के मरीजों को जीवित मछली निगलने को कहते थे, जिससे बीमारी ठीक हो जाती थी। जीवित मछली को मरीज को निगलवाने के बाद मरीज का अस्थमा ठीक करने का दावा किया जाता है।
इस मछली को मरीजों को मछली प्रसादम के तौर पर वितरित किया जाता है। अस्थमा के मरीजों को मछली प्रसादम देने के कारण वो मरीजों के बीच काफी चर्चित थे। बथिनी हरिनाथ गौड़ का निधन 84 वर्ष की उम्र में हुआ है। माना जा रहा है कि वो लंबे समय से बीमार थे। इसी बीच उन्होंने 23 अगस्त की रात को अंतिम सांस ली है। उनके निधन की जानकारी उनके परिवार के सदस्यों ने दी है।
संत बथिनी हरिनाथ गौड़ का परिवार मछली के जरिए ही अस्थमा के रोगियों का इलाज करता है। पूरा परिवार मछली प्रसादम की व्यवस्था करता है। संत बथिनी हरिनाथ गौड़ अपने बाद परिवार में पत्नी, दो बेटे, दो बेटियों को छोड़ गए है। परिवार के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार 25 अगस्त को किया गया ।
हरियाणा के राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय और कांग्रेस की तेलंगाना इकाई के अध्यक्ष एवं सांसद ए रेवंत रेड्डी ने हरिनाथ गौड़ के निधन पर शोक व्यक्त किया है। बथिनी परिवार पिछले 100 से भी अधिक वर्षों से प्रत्येक वर्ष मृगशिरा कार्थी के अवसर पर मछली प्रसादम (मुरेल मछली और हर्बल पेस्ट से युक्त) दवा अस्थमा के रोगियों को निशुल्क प्रदान करता आ रहा है। ऐसा माना जाता है कि मछली प्रसादम दवा का सूत्र बथिनी परिवार में किसी बुजुर्ग व्यक्ति ने तैयार किया था, जिसके बाद से यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।
बता दें कि परिवार वर्षों से मछली की ये दवा अस्थमा रोगियों को देता है। हर वर्ष दूर दूर से मरीज इस दवा को लेने आते है। इस दवा को साल भर नहीं दिया जाता है बल्कि मृगसिरा कार्ती के मौसम की शुरुआत के दौरान ही ये दवा दी जाती है। कहा जाता है कि जड़ी बूटियों का उपयोग कर परिवार अपने पैतृक कुएं के पानी का इस्तेमाल कर दवा को तैयार करता है। हर्बल दवा जीवित मछली के मुंह में रखी जाती है, फिर इसे अस्थमा के मरीजों को खिलाया जाता है। ये दवा पूरे भारत भर में अस्थमा के मरीजों के बीच लोकप्रिय है।
बता दें कि गौड़ परिवार का दावा है कि बीते 178 वर्षों से वो मछली की दवा को मुफ्त में वितरित करते है। हर्बल औषधि का फॉर्मूला परिवार में उनके पूर्वज को 1845 में एक संत ने यह शपथ लेने के बाद दिया था कि इसे निःशुल्क दिया जाएगा।
साभार – प्रभासाक्षी