1980 से 1989 तक मुस्लिमों का संसद में प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के अनुपात में अच्छा था
लखनऊ। मौजूदा लोकसभा में सिर्फ़ 27 मुस्लिम सांसद हैं। जबकि 1980 से 1989 तक मुस्लिम अपनी तत्कालीन आबादी 13 प्रतिशत के मुकाबले 8•3 प्रतिशत तक प्रतिनिधित्व पाते थे। 1980 से 1984 तक तो 49 सांसद मुस्लिम हुआ करते थे। इसका मतलब है कि मुस्लिम जब कांग्रेस के साथ एक तरफा आते थे तो संसद में उनकी नुमाइंदगी बढ़ जाती थी। लेकिन जैसे ही वो किसी पार्टी को हराने के नाम पर कांग्रेस से दूर होते गए संसद में उनकी नुमाइंदगी घटती गयी।
ये बातें अल्पसंख्यक कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष शाहनवाज़ आलम ने साप्ताहिक स्पीक अप कार्यक्रम की 116 वीं कड़ी में कहीं।
शाहनवाज़ आलम पीयू रिसर्च सेंटर द्वारा पिछले दिनों संसद में मुस्लिम प्रतिनिधित्व पर आई रिपोर्ट पर बात कर रहे थे। उन्होंने कहा कि 1989 के बाद से मुस्लिमों ने भाजपा को हराने के लक्ष्य से वोट करना शुरू किया जिसके चलते वो धीरे-धीरे निगेटिव वोटर में तब्दील हो गए। उत्तर प्रदेश में जहाँ मुसलमानों की आबादी इस समय 20 प्रतिशत है वहाँ भी निगेटिव वोटिंग के कारण उनसे 5 गुना कम आबादी वाली जातियाँ के लोग भी उनके वोट के बल पर मुख्यमन्त्री और सांसद विधायक बनते गए लेकिन मुसलमानों की ख़ुद की लीडरशिप खत्म होती गयी। जबकि जब तक वो कांग्रेस को जितवाने के लिए वोट करने वाले पॉजिटिव वोटर रहे कांग्रेस बिहार, असम, राजस्थान, पॉन्डीचेरी, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में मुस्लिम मुख्यमन्त्री बनाया करती थी और संसद में भी उनकी नुमाइंदगी अच्छी होती थी।
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि आज उत्तर प्रदेश में स्थिति यह हो गयी है कि सभी गैर भाजपा पार्टियों को मिलाकर भी आधे दर्जन से ज़्यादा मुस्लिम नेता नहीं हैं। यह लोकतंत्र और मुस्लिम समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय है।
उन्होंने कहा कि अतीत से सबक लेते हुए मुस्लिम समुदाय फिर से एकतरफा कांग्रेस के साथ आने का मन बना चुका है। उसे एहसास हो रहा है कि कांग्रेस से दूर होने के कारण वो यूपी में आज नेतृत्वविहीन हो गए हैं।