आज असम की पूर्व कांग्रेसी मुख्यमन्त्री सैयदा अनवरा तैमूर की जयन्ती है। 28 सितंबर 2020 को ऑस्ट्रेलिया में दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु से पहले वो इसलिए चर्चा में थीं की एनआरसी की लिस्ट में उनका नाम नहीं था। यानी भले वो असम की आठवीं मुख्यमन्त्री रहीं लेकिन 2014 के बाद बदले राजनीतिक माहौल में उन्हें भारतीय राज्य ने नागरिक नहीं माना। इस घटना के बाद सीएए-एनआरसी की प्रक्रिया के असली मुस्लिम विरोधी एजेंडे पर काफी बहस हुई थी कि जब एक मुख्यमन्त्री रह चुके व्यक्ति के साथ ऐसा हो सकता है तो आम मुसलमानों की स्थिति क्या होगी।
बहरहाल, असम की एक मात्र मुस्लिम और महिला मुख्यमन्त्री के सिर्फ़ 6 महीने तक उस ओहदे पर बैठने से पहले असम की तात्कालिक राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों को समझना ज़रूरी होगा। इससे आप इंदिरा गाँधी के निडर व्यक्तित्व को भी समझ सकते हैं। जिन्होंने 4 साल पहले ही संविधान का 42 वां संशोधन करके प्रस्तावना में समाजवादी और सेकुलर शब्द जोड़ दिया था।
1979 से 1985 का पूरा साल असम की राजनीति को लम्बे समय तक के लिए बदलने वाली घटनाओं से भरा था। बांग्लादेश के निर्माण के बाद बांग्ला बोलने वालों का पलायन एक बड़े मानवीय समस्या के बतौर सामने आ गयी थी। उस युद्ध में भारत समर्थित मुक्ति वाहिनी के प्रत्यक्ष समर्थन के कारण बहुत से बांग्लाभाषी तब भारत आ गए थे। इनमें से बहुतों को देश के अलग अलग हिस्सों मसलन, उत्तराखंड के रुद्रपुर, उत्तर प्रदेश के पीलीभीत समेत कई जगहों पर कॉलोनीयां बना कर बसाया गया। इस बीच ऑल आसाम स्टूडेंट्स यूनियन आजसू और अखिल असम गण संग्राम परिषद ने इस मानवीय संकट में सांप्रदायिक राजनीति के लिए अवसर ढूंढ लिया। 1979 से 1985 तक उसने मुस्लिम विरोधी माहौल को प्रोत्साहित किया। जिससे नेल्ली जनसंहार जैसी घटना के लिए भी माहौल बना जब 18 फरवरी 1983 को 3 हज़ार बांग्लाभाषी मुसलमानों की हत्या दंगाईयों ने कर दी थी। इस घटना के पीछे आरएसएस और उसके सक्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी के एक भड़काऊ भाषण को भी ज़िम्मेदार माना जाता है।
यानी 6 दिसंबर 1980 को जब इंदिरा गाँधी ने सैयद अनवरा तैमूर को असम का मुख्यमन्त्री बनाया तब वहाँ न सिर्फ़ क़ानून-व्यवस्था चरमरा चुकी थी बल्कि मुसलमानों के खिलाफ़ विपक्षी दलों ने एक व्यापक नफ़रत का माहौल बना रखा था। लेकिन इंदिरा गाँधी ने उस बहुसंख्यकवादी उन्माद के आगे घुटने नहीं टेके बल्कि एक मुस्लिम महिला को ही मुख्यमन्त्री बना दिया। यह अलग बात है कि राष्ट्रपति शासन लगने के कारण 6 महीने तक ही वो मुख्यमन्त्री रह सकीं। लेकिन उनकी नियुक्ति ने एक मुस्लिम महिला नेता में इंदिरा गाँधी के अटूट विश्वास को उजागर ज़रूर किया। अनवरा तैमूर बाद में पीडब्लूडी से लेकर कई अहम मंत्रालयों की ज़िम्मेदारी संभाला जो उनकी नेतृत्व की सलाहियत को दर्शाता है। यहाँ यह भी ध्यान देना ज़रूरी होगा कि तब केंद्र की राजनीति में मोहसीना किदवई भी स्वास्थ्य और परिवहन जैसे मंत्रालय देखती थीं और उस समय परिवहन मंत्रालय के अधीन रेलवे, सड़क और उद्दयन सब आता था। यानी तब मुस्लिम और वो भी महिला सिर्फ़ अल्पसंख्यक मंत्रालय चलाने लायक ही नहीं माने जाते थे। उनकी अपनी गंभीर छवि होती थी और वो अन्य नेताओं की तरह ही सभी कामों को करने के योग्य माने जाते थे।
यहाँ यह भी संज्ञान में रखना ज़रूरी होगा कि उस समय इंदिरा गाँधी ने बिहार में अब्दुल गफूर, राजस्थान में बरकतुल्लाह खान, महाराष्ट्र में अब्दुल रहमान अंतुले, पॉण्डीचेरी में हसन फारूक को भी मुख्यमन्त्री बना दिया था। यानी कुल 5 मुस्लिम मुख्यमन्त्री थे।
अपने जन संवाद कार्यक्रमों में इन मुस्लिम मुख्यमन्त्रीयों के बारे में जब मैं पूछता हूँ तो अधिकतर लोग कोई जानकारी नहीं दे पाते। दरअसल, कश्मीर के अलावा भी मुस्लिम कहीं मुख्यमन्त्री रहा है यह सुनकर उन्हें आश्चर्य होता है। यह मुसलमानों के गैर राजनीतिक समुदाय में तब्दील कर दिए जाने का ही परिणाम है। जिसे एक साइलेन्ट अभियान की तरह खूब प्रचारित किया गया ताकि मुसलमान कभी मुख्यमन्त्री बनने की बात सोच भी न सके। ज़ाहिर है जब वो 5 का नाम नहीं जानेगा तो छठवें के बारे में भी नहीं सोच पाएगा। इसीलिए उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस ने एक अहम और स्थायी काम यह किया कि इन पांचों मुस्लिम मुख्यमन्त्रीयों के जन्मदिन और पुण्यतिथि पर हर ज़िले में कार्यक्रम शुरू किए। लोगों को उनकी तस्वीर वाले सर्टिफिकेट बांटे जाते हैं ताकि उन्हें लोग पहचानें। जिससे समाज का राजनीतिक आत्म विश्वास बढ़ सके। यह आत्म विश्वास तोड़ कर ही मुसलमानों को कमज़ोर किया गया है। स्थिति यहाँ तक पहुंचा दी गयी थी कि कम पढ़े लिखे मुस्लिमों में यह धारणा बना दी गयी है कि संविधान में यह लिखा है कि मुसलमान कभी मुख्यमन्त्री नहीं बन सकते। ज़ाहिर है यह अफवाह इसलिए ही फैलाई गयी है ताकि मुसलमान अपनी वोट की ताक़त पर भरोसा न कर पाए, उसका राजनीतिक आत्म विश्वास टूटा रहे और अपने बीच से लीडरशिप पैदा न कर पाए।
सैयद अनवरा तैमूर को याद करके हम अपनी इन सभी आंतरिक कमज़ोरीयों को दूर करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
शाहनवाज़ आलम
लेखक