संवाद / विनोद मिश्रा
बांदा। यूपी के बुंदेलखंड क्षेत्र की लोकसभा सीटों पर भाजपा फिर से अपना परचम फहराने को जी तोड़ मेहनत की है।यहां प्रत्याशी और पार्टी की कुछ लहर के साथ प्रमुख रूप से जाति के आधार पर वोट पड़ते हैं। पिछले दस सालों से इन सीटों पर अभी तक ऐसा ही देखा गया है। भाजपा ने जिन मौजूदा सांसदों को चुनाव मैदान में उतारा है, उनमें से दो लगातार दस साल से सांसद हैं जबकि दो लगातार दूसरी बार प्रत्याशी बने हैं।इस बार इन प्रत्याशियों को टिकट देने पर हल्का विरोध भी हुआ था। राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं,
“राम जन्मभूमि आंदोलन के समय बने राजनीतिक माहौल के बीच हुए 1991 के आम चुनाव में भाजपा ने बुंदेलखंड की चारों सीटों पर कब्जा किया था।1996 में सिर्फ बांदा सीट बसपा के खाते में गई, जबकि भाजपा ने बाकी तीन सीटें जीती थीं।1998 के चुनाव में फिर भाजपा ने चारों सीटें जीतकर वर्चस्व कायम किया। इसके बाद भाजपा को इस अंचल में एक अरसे से नाकामी मिली। 2014 में जब मोदी लहर और हिंदुत्व का मुद्दा गरमाया, भाजपा एक बार फिर पूरे बुंदेलखंड पर छा गई। भाजपा ने हिंदुत्व के साथ सोशल इंजीनियरिंग के जरिए बुंदेलों की धरती पर अपनी धाक जमाई।”
जातीय समीकरण की बात करें तो बुंदेलखंड में मुस्लिमों की आबादी कम है। इनकी करीब 15 फीसदी भागीदारी है।
कम आबादी के कारण ही बुंदेलखंड में राजनीतिक दल मुस्लिम मतदाताओं और नेताओं की प्रदेश के दूसरे हिस्सों की तुलना में कम तवज्जो दे रहे हैं। यहां सभी दलों का ध्यान दलित, पिछड़ा और ब्राह्मण मतदाताओं पर रहता है। हालांकि इस चुनाव में वैश्य मतों को भी रिझाने का जमकर प्रयास राजनीतिक दलों ने किया है।” बांदा और हमीरपुर सीट पर ब्राह्मणों का वोट अहम है।हमीरपुर में लोधी समुदाय की भी अहम भूमिका है। बांदा और झांसी में कुर्मी व कुशवाहा समुदाय के वोटों का खास महत्व है।झांसी में राजपूतों का भी रसूख है।जालौन में यादव मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। चुनाव में जातीय समीकरणों की बड़ी भूमिका परिणाम को अंजाम देगी।