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बांदा का मोहर्रम पूरे देश में निराला : हिन्दू मुस्लिम सद्भाव का बन चुका है प्रतीक


संवाद/ विनोद मिश्रा


बांदा। बुंदेलखंड और खासकर बांदा का मुहर्रम पूरे देश में निराला है। यहां जैसे आयोजन शायद ही कहीं होते हो। मुहर्रम का चांद नजर आते ही पहली से दसवीं तारीखों तक रोजाना कुछ न कुछ होता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि साल में इकलौता मौका होता है, जिसमें सांप्रदायिक सौहार्द और हिंदू मुस्लिम एकता का बेमिसाल नजारा देखने को मिलता है।इस सांप्रदायिक सौहार्द की नींव एक मराठा सैनिक रामा ने रखी थी। करीब 274 साल पहले रामा ने मुहर्रम में ढाल सवारी की शुरुआत की थी, जो आज भी बरकरार है।


यहां पर सदियों पहले मुहर्रम में मुस्लिम ताजिया उठाते थे। इसी दौरान महाराष्ट्र से बाजीराव पेशवा की सेना में शामिल रहे रामा ने 1750 ईस्वी में मुहर्रम में ढाल सवारी की शुरुआत की। मुहर्रम की नवमी को दहकते आग के अंगारों पर अकीदतमंदों ने ढोल ताशे की धुन पर थिरकते हुए हैरतअंगेज नजारा पेश किया। इसके बाद आग से खेलने वाले हकीदतमंद ही ढाल सवारी उठाने लगे थे। यह परंपरा रामा ने ही शुरू की थी। इसके लिए उसने शहर के अलीगंज मोहल्ले में एक इमामबाड़ा भी स्थापित किया। बताते हैं कि रामा की ढाल इतनी वजनी थी जिसे कोई दूसरा उठा नहीं पाता है आज भी यह ढाल सवारी इमाम बाड़े में मुहर्रम में रखी जाती है।


इस त्यौहार को हिंदू-मुस्लिम एक साथ मिलकर मनाते हैं। रामा के वंशज आज भी उस इमामबाड़े को हर साल मुहर्रम में खोलते हैं। यहां जाने में मुस्लिमों ने कभी भी परहेज नहीं किया। मुहर्रम के पहले ढाल सवारी उठाने वाले हकीदतमंद धूनी लेने के लिए इसी इमामबाड़े में आते हैं। यहां से धूनी लेकर मुस्लिम कर्बला की ओर जाते हैं।