उत्तर प्रदेशजीवन शैली

बांदा में “बुर्ज” की आड़ से कजली मेला देखती थीं “नवाब की बेगमें”


संवाद/ विनोद मिश्रा


बांदा। मंगलवार को कजली मेला नें एक बार फिर बांदा नवाब के मेला शौक की याद दिलाया । 1857 की क्रांति के सूरमा रहे नवाब को अपने बनवाए गए तालाब (नवाब टैंक) में लगने वाला कजली मेला बेहद पसंद था। हर साल वह बेगमों के साथ यहां आकर मेला देखते थे। जनता को भी नवाब के दर्शन होते थे। यहां पर कजलियां विसर्जित करने की परंपरा आज भी जीवित है। भादो माह के शुरू होते ही बुंदेलखंड में कजली मेला खास उत्सव है। बांदा में यह काफी श्रद्धा और परंपराओं के साथ मनाया जाता है। कजली मेले का महत्व 1857 के पूर्व से चला आ रहा है। नवाबी कार्यकाल में यह मेला खास आयोजनों में गिना जाता था। सुबह छाबी तालाब में मेला लगने के बाद शाम को नवाब टैंक में कजली मेला और दंगल होता है। नवाब जुल्फिकार अली बहादुर के जमाने में बांदा में सूखा पड़ा।


नवाब ने लोगों को भुखमरी से बचाने के लिए ‘काम के बदले अनाज’ योजना के तहत तालाब खुदवाना शुरू कर दिया। खुदाई करने वालों को मजदूरी में अनाज मिलता था। खुदाई का काम रात में भी होता था ताकि शर्म और संकोच में दिन में काम न कर पाने वाले लोग रात को मजदूरी कर सकें। यह तालाब बुंदेलखंड का ऐतिहासिक तालाब है। इसकी डिजाइन की यह खासियत है कि चारों कोनों की फोटो नहीं आ पाती।


नवाब टैंक में पानी के मध्य बने बुर्ज में परदे की कनाते लगाकर नवाब की पर्दानशीं बेगमें कजली मेला देखती थीं। भारी तादाद में हुजूम इकट्ठा होता था। इनमें आसपास के गांवों से आने वाली महिलाएं ज्यादा होती थीं। महिलाओं के जत्थे कजली गीत गाते हुए यहां पहुंचते और तालाब में कजलियां विसर्जित कर देते। यह परंपरा आज भी बदस्तूर बरकरार है। कजली मेला के मौके पर ही नवाब साहब जनता को अपने दर्शन देते थे।