संवाद/ विनोद मिश्रा
बांदा। “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”, कबीर दास की इन पंक्तियों का अर्थ है, हार और जीत केवल मन का भाव है। साधारण भाषा में देखें तो यदि किसी काम को करने से पहले ही हम हार मान लें तो वास्तव में ही हम उस काम को नहीं कर पाते हैं। अगर उस काम को लगन और मेहनत से किया जाए तो सफलता जरूर मिलती है। ऐसा ही आईएएस अजीत कुमार यादव ने कर दिखाया।
भारत में यूपीएससी की परीक्षा पास करना सबसे कठिन माना जाता है।
एक आम छात्र के लिए इस परीक्षा को पास करना जितना मुश्किल होता है उतना ही मुश्किल एक दृष्टिबाधित परीक्षार्थी के लिए है। हालांकि, दृष्टिबाधित होने के बावजूद अजित कुमार यादव ने सभी चुनौतियों को हराते हुए यूपीएससी की परीक्षा पास कर आईएएस बनकर समाज के लिए एक मिसाल बने।
महज पांच साल की उम्र में डायरिया की वजह से आंखों की रोशनी खोने के बावजूद अजीत कुमार ने हार नहीं मानी। अजीत की शुरुआती पढ़ाई 90 के दशक में शुरू हुई थी। तब टेक्नोलॉजी ज्यादा विकसित नहीं थी। ऐसे में अजीत ने दृष्टिबाधित होकर ही अपनी पढ़ाई पूरी की। इस दौरान उन्हें कई परेशानियों का भी सामना करना पड़ा। अजीत ने इसी हालत में यूपीएससी की तैयारी भी की थी।

लंबे संघर्ष के बाद बने आईएएस
अपनी मेहनत के दम पर अजीत ने 2008 में सीएसई की परीक्षा में शामिल हुए और 208 वीं रैंक हासिल की। वह आईएएस पद की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन उन्हें भारतीय रेलवे कार्मिक सेवा में पद ऑफर किया गया था। इसके दो साल बाद साल 2010 में केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण द्वारा एक अनुकूल फैसले के बाद भी उन्हें आईएएस पद नहीं दिया गया। अजीत अपने साथ हो रहे इस भेदभाव के लिए लड़ाई लड़ी। उनके इस संघर्ष के बाद दिव्यांगों के अधिकारों के लिए राष्ट्रीय मंच और राजनेता बृंदा करात के हस्ताक्षेप के बाद अजीत को 2012 में नियुक्ति पत्र दिया गया। अजीत कुमार हालांकि किसी जिले में डीएम नहीं रहे। लेकिन कार्यकुशलता के चलते वह तीन दिन चित्रकूट धाम के मंडलायुक्त जरूर बन गये।