संवाद/विनोद मिश्रा
बांदा। यूपी के हिस्से वाले बुंदेलखंड में हर तीज-त्योहार खासकर होली का त्योहार मनाने के अलग-अलग रिवाज रहे हैं। अब होली को ही ले लीजिए. करीब तीन दशक पूर्व तक होलिका दहन के बाद रात में गांवों के ‘लंबरदार’ अपने यहां मजदूरी करने वाले चुपके से दलितों के घरों में मरे मवेशियों की हड्डी, मल-मूत्र और गंदा पानी फेंका करते थे, इसे ‘हुड़दंग’ कहा जाता था। लेकिन सामाजिक जागरूकता से रिवाज अब बंद हो चुका है।
होली में ‘हुड़दंग’ सभी से सुना होगा, लेकिन बुंदेली हुड़दंग के बारे में शायद ही सबको पता हो. तीन दशक पूर्व तक महिला और पुरुषों की अलग-अलग टोलियों में ढोलक, मजीरा और झांज के साथ होली गीत गाते हुए होलिका तक जाते थे और गांव का चौकीदार होलिका दहन करता था। खास बात यह थी कि होलिका दहन करने से पूर्व सभी महिलाएं लौटकर अपने घर चली आती थीं। तर्क था कि होलिका एक महिला थी, महिला को जिंदा जलते कोई महिला कैसे देख सकती है ?

होलिका दहन के बाद शुरू होता था ‘होली का हुड़दंग’. गांव के बड़े काश्तकार मरे मवेशियों की हड्डियां, मल-मूत्र व गंदा पानी अपने साथ लाकर अपने यहां मजदूरी करने वाले दलित के दरवाजे और आंगन में फेंक देते थे।सुबह दलित दंपति उसे समेट कर डलिया में भर कर और लंबरदार को भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए उनके दरवाजे में फेंक देते।दलित मनचाही बख्शीस मिलने के बाद ही हुड़दंग का कचरा उठाकर गांव के बाहर फेंकने जाया करते थे।दलितों को बख्शीस के तौर पर काफी कुछ मिला भी करता था !