रमजान का मुबारक महीना चल रहा है, लेकिन क्या आपको मालूम है दिल्ली का एक रमजान कुछ यूँ भी गुज़रा है। जी हाँ हम बात कर रहे हैं 1857 के इंकलाब के आगाज़ का जो 10 मई 1857 की शाम मेरठ से शुरू हुआ था और अगले दिन सुबह सेहरी तक मेरठ से सारे इंकलाबी सिपाही दिल्ली कूच कर चुके थे, जी हाँ उस दिन 16वां रोज़ा था।
उस दिन जो हुआ हुआ तारीख की किताबों में कुछ यूं लिखा है-
सख्त गर्मी का मौसम था दिल्ली की जामा मस्जिद में बार-बार घंटा बजने से लोगों की आंख खुलती है, जो लोग फिर भी सो रहे होते हैं फ़क़ीर उनके दरवाज़े पर दस्तक दे कर उन्हें भी जगा देते हैं। वक्त-ए-सेहर ख़त्म होता है। मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर भी यमुना से सटे तस्बीहखाने से फजर की नमाज़ अदा करके जैसे ही खड़े होते हैं, उनकी निगाहें धरी की धरी रह जाती हैं उन्होंने यमुना पुल के टोलहाउस से काला धुआँ उठता देखा। जिसके बाद उन्होंने किले के कुछ मुलाज़िमों को फौरी तौर पर वजह जानने के लिए वहां भेजा और साथ ही वजीर ए आज़म हकीम एहसानुल्लाह खान और किले की हिफाजत में मौजूद कैप्टन डगलस को भी तलब कर लिया।
4 बजे इन इंकलाबी सिपाहियों के नेता ने बादशाह को संदेश भेजवाया की वह उसने मिलना चाहते हैं। और इसके बाद वह दीवाने-खास के हाथे में जमा हो गए। और अपनी बंदूके और पिस्तौलों से हवा में फ़ायरिंग करने लगे। बादशाह अंग्रेजों के साथ दो-दो हाथ करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। यह सब देख उन्होंने ने पूछा मेरे जैसे बुजुर्ग आदमी की इतनी बेइज़्ज़ती क्यों की जा रही है। ये मेरे ज़िंदगी के आख़िरी दिन हैं और इस वक्त हम सिर्फ तन्हाई चाहते हैं। बाद में एक ब्रिटिश लेखक चार्ल्स मेटकॉफ ने अपनी किताब “टू नेशन नैरेटिव्ज़” में लिखा की – वजीर ए आज़म हकीम एहसानुल्लाह खान ने सिपाहियों ने कहा ने की आप अंग्रेजों के लिए काम करते रहें हैं और हर महीने बंधी हुयी तनख्वाह के आदि हैं बादशाह के पास कोई खजाना नहीं है वो कहां से आपको तनख्वाह देंगे।
तो इस पर सिपाहियों ने कहा की हम पूरे मुल्क का पैसा आपके खजाने में ले आएँगे। बादशाह ने कहा मेरे पास न फौजी हैं और न ही हथियार सिपाहियों ने कहा हमें बस आपका साथ चाहिए बड़ी मुश्किल से सिपाहियों ने बादशाह को मना लिया और उन्हें अपना रहनुमा घोषित कर दिया। 12 मई की सुबह तक पूरी दिल्ली पर इंकलाबी सिपाहियों का कब्ज़ा हो गया।
दिल्ली अँग्रेजों से खाली हो गयी लेकिन कुछ अंग्रेज औरतों ने किले के बावर्चीखाने के पास कुछ कमरों में पनाह ले रखी थी। बागियों ने बादशाह के काफी मना करने के बाद भी कुल 56 लोगों जिसमें अंग्रेज बच्चे और औरतें थीं उन्हें क़त्ल कर दिया बाद में बहादुरशाह जफ़र के खिलाफ इसी बात का मुकदमा भी चलाया गया था और उन्हें अंग्रेजों ने उम्रकैद की सजा भी सुनाई। और उन्हें वतन से कोसो दूर बर्मा भेज दिया गया।
सल्तनत ख़त्म हो गयी लेकिन लोगों के दिलों से इंकलाब का जज़्बा ख़त्म नहीं हुआ। देश के ज़्यदातर हिस्सों में इंकलाब की अँधियाँ उठीं लेकिन वक्त को कुछ और ही मंजूर था। ये इंकलाब कामयाब न हो सका इसमें भी कहीं न कहीं अपनों ने ही गद्दारी की थी। खैर यहां ये कहना गलत नहीं होगा की इस शानदार इंकलाब के जज़्बों ने आगे चल कर हिन्दुस्तानियों को इतनी हिम्मत दी जिससे आखिरकार 1947 में अंग्रेजों को ये मुल्क छोड़ कर जाना पड़ा।