दिल्ली

हज़रत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर इफ्तार का खूबसूरत मंज़र

दरअसल रमजानुल मुबारक का महीना और यहां की रौनकों का एक बहुत खास रिश्ता है। क्योंकि 2 रमजानुल मुबारक 569 हिजरी में ओश, कारा खिताई (किर्गिस्तान) में हजरत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी (र.ह.) की पैदाइश हुयी थी।

हजरत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के शागिर्द थे। इनकी दरगाह दिल्ली में कुतुबमीनार से तकरीबन 1 किलोमीटर दूर जफर महल के बगल में मौजूद है। ख्वाजा बख्तियार काकी सुल्तान इल्तुतमिश के बेहद करीबी थे लेकिन फिर भी उन्होंने कभी शाही मदद नहीं ली अपनी पूरी जिंदगी उन्होंने दरवेशों की तरह गुजार दी।

एक जाने-माने बुजुर्ग होने के नाते ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी ने लोगों पर बड़ा ग़लबा पाया उन्होंने उस वक्त की हुकूमत के साथ नॉन इंवोल्मेंट की पॉलिसी जारी रखी। यह जुनूबी एशिया में चिश्ती बुजुर्गों का रिवायती तरीका था। क्यूंकि वो ये महसूस करते थे की हुक्मरानों और हुकूमत के साथ उनका ताअल्लुक़ दुनियावी मुआमलात की तरफ उनके जेहन को मोड़ देगा।

उनकी ज़िन्दगी में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश उनकी बहुत इज्जत करते थे। ऐसा कहा जाता है की ईंटों से बनी दुनिया की सबसे ऊँची मीनार जिसे हम सब कुतुब मीनार के नाम से जानते हैं का काम मुकम्मल कराने के बाद सुल्तान इल्तुतमिश ने उसे इनके नाम पर ही रखा था। उस समय इसे कुतुब साहिब की लाठ भी कहा जाता था। ये लोधी खानदान के भी पसंदीदा सूफी संत थे जिन्होंने 1451 से 1526 तक यानि मुगलों के हिंदुस्तान आने के पहले तक दिल्ली पर हुक्मरानी की थी।

ख्वाजा बख्तियार काकी की वफ़ात के बाद जब उनकी वसीयत पढ़ी गयी थी तो उसमे इस बात पर जोर दिया गया था की सिर्फ वही शख्स उनकी नमाजे-जनाज़ा पढ़ा सकता है जिसने कभी हराम काम न किया हो, और न ही कभी नमाजे असर की सुन्नत को छोड़ा हो। वसीयत पढ़ने के बाद महफ़िल में एक ख़ामोशी तारी हो गयी क्यूंकि तक़रीबन हर किसी ने वसीयत में लिखी बातों पर अमल नहीं किया था, आखिर में नम आँखों के साथ सुल्तान इल्तुमिश जमात से बाहर आये और बोले मैं अपने आप को (inner self) सब पर जाहिर नहीं करना चाहता था लेकिन ख्वाजा बख्तियार काकी की मर्जी यही चाहती है बिलआख़िर सुल्तान इल्तुतमिश ने ही इनकी नमाजे-जनाज़ा पढ़ाई क्यूंकि वह वाहिद शख्स थे जिन्होंने ख्वाजा बख्तियार काकी की वसीयत में लिखी बातों पर अमल किया था।