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आज के दिन स्वतंत्रता सेनानी बेगम हज़रत महल इस दुनिया से रुखसत हुई

आज के दिन ही, 7 अप्रैल 1879 ई. में 59 साल की उम्र में लखनऊ की सरजमीं पर अंग्रेजों के झंडे जमींदोज करने वाली स्वतंत्रता सेनानी बेगम हजरत महल इस दुनिया से रुखसत हुई थीं। नाजुक मिजाज नवाबों के महलों में शान-ओ-शौकत की जिंदगी बसर करने वाली बेगम हजरत महल ने अपने वतन के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया था। उन्होंने अपना आखरी वक्त काठमांडू की तंग गलियों में गुजार दिया लेकिन महलों में रहकर अपने गले में गुलामी की जंजीर नहीं डाली।

जब अग्रेजों ने अवध के आखिरी ताजदार वाजिद अली शाह को कलकत्ता जिलावतन कर दिया उस वक्त उनकी छोटी बीवी बेगम हजरत महल ने अवध की कमान संभाली उन्होंने अपने बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का वली मुक़र्रर कर दिया और अग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी या यूँ कहें की जंग का एलान कर दिया। उन्होंने अपने नाबालिग बेटे को तख़्त पर बैठा कर खुद अंग्रेजों की फौज का सामना किया। बेग़म हज़रत महल और रानी लक्ष्मी बाई की फौज में औरतों ने भी बढ़ चढ़ हिस्सा लिया था।

नाना साहेब और मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी ने भी 1857 की जंग-ए-आजादी में बेगम हजरत महल का साथ दिया था। आलमबाग की जंग के दौरान उन्होंने हाथी पर सवार होकर अपने जाबांज सिपाहियों की खूब हौसला अफजाई की लेकिन जंग में शिकस्त होती देख उन्हें मजबूरन पीछे हटना पड़ा। जिसके बाद वह अवध के देहातों में गईं और वहाँ भी इंक़लाब की चिंगारी सुलगाई। आखिर में जब पुरे अवध पर अंग्रेजों ने कब्ज़ा कर लिया तब उन्हें अवध छोड़ना पड़ा। उन्हें काठमांडू में शरण मिली बाद की जिंदगी उन्होंने वहीं गुजारी। जिस तरह दीगर शाही घराने आज अपने महलों में शान-ओ-शौकत से रह रहे हैं अगर उस वक्त उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी तस्लीम कर ली होती तो आज उनका भी घराना सलामत होता और वैसे ही शान-ओ-शौकत से रहता।

उनकी वफ़ात के बाद उन्हें काठमांडू में ही दफ़न किया गया था। हालांकि उनकी वफ़ात के बाद मलिका विक्टोरिया की यौम-ए-पैदाइश (1887) के मौके पर ब्रिटिश हुकूमत ने उनके बेटे बिरजिस क़द्र को माफ़ कर दिया था और उन्हें वतन वापस लौटने की इजाज़त दे दी थी।