“नफरत का चश्मा उतार कर देखोगे तो समझ में आएगा कि बहादुर शाह ज़फ़र स्वतंत्रता सेनानी थे।”
1857 की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जब भी बात होती है, एक नाम अनायास ही सामने आता है— बहादुर शाह ज़फ़र। वे केवल भारत के अंतिम मुग़ल सम्राट नहीं थे, बल्कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ देश की पहली संगठित आवाज़ भी थे।
जब 1857 में भारतीय सैनिकों और आम जनता ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका, तो उन्होंने नेतृत्व के लिए बहादुर शाह ज़फ़र का चयन किया। बूढ़े ज़फ़र ने अपनी उम्र और कमज़ोरियों के बावजूद इस क्रांति की अगुवाई की। यह केवल एक राजनीतिक कदम नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और देशभक्तिपूर्ण निर्णय था।
लेकिन दुर्भाग्य देखिए— जब विद्रोह असफल हुआ, तो अंग्रेजों ने ज़फ़र को गिरफ़्तार कर बर्मा (आज का म्यांमार) निर्वासित कर दिया। इतना ही नहीं, उन्हें अपने वतन की मिट्टी तक नसीब नहीं हुई।
उनकी दिल को छू लेने वाली यह पंक्तियाँ आज भी हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं:
“कितना है बद-नसीब ‘ज़फ़र’ दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में…”
आज ज़रूरत है कि हम इतिहास को व्हाट्सएप फॉरवर्ड्स से नहीं, किताबों और तथ्यों से समझें। वह ज़फ़र, जिन्होंने अपने वतन के लिए सब कुछ खो दिया, उन्हें ‘गद्दार’ कहना हमारी ही सोच का दिवालियापन है।
आज भी जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं, तो ज़रूरत है उन नामों को भी याद करने की जिन्हें इतिहास के पन्नों से मिटा दिया गया— और बहादुर शाह ज़फ़र उन नामों में शीर्ष पर हैं।